खुद की बनाई परंपरा को ध्वस्त करती मध्य प्रदेश विधानसभा
सरकार और विपक्ष के बीच अघोषित समझौता ?
गौरव चतुर्वेदी / खबर नेशन / Khabar Nation
सदन नियम परंपराओं से चलता है । सरकार सत्र चलाना नहीं चाहती है। विपक्ष जनता के मुद्दे पर सदन में चर्चा करने से भगता है । उक्त तीनों लाइन मध्य प्रदेश विधानसभा सत्र के दौरान जबरदस्त तरीके से मीडिया की सुर्खियों में शामिल होती है । यह किसी न्यूज चैनल या समाचार पत्र की हैडलाइन तो हो सकती है लेकिन असल में देखा जाए तो यह सब मध्य प्रदेश विधानसभा की परंपरा को ध्वस्त करने वाली साबित हुई है । इससे भी बढ़कर मामला यह है की इन दिनों उन परंपरा को भी ध्वस्त किया जा रहा है जिसे मध्य प्रदेश की विधानसभा में ही सबसे पहले शुरू किया गया था ।
हाल ही में मध्य प्रदेश विधानसभा का बजट सत्र समय से पहले समाप्त हो गया । आश्चर्य करने वाली बात यह रही की बजट के जिन विषयों पर चर्चा करवाया जाना आवश्यक था । उसे पूर्व में हुई चर्चाओं में जिक्र आने को लेकर शामिल मानते हुए सदन की कार्रवाई आगे बढ़ा दी गई और बजट पास कर लिया गया। इसी के साथ ही सदन की कार्रवाई अनिश्चितकालीन स्थगित कर दी गई। सदन की कार्रवाई स्थगित किए जाने को लेकर कुछ कांग्रेसी विधायकों ने आपत्ति उठाई भी लेकिन संसदीय कार्यमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने यह कहकर उन विधायकों को चुप करा दिया कि आप अपने नेता प्रतिपक्ष से बात कर लें हम सदन में चर्चा करने तैयार हैं।
आखिर गड़बड़ कहां ?
मध्य प्रदेश विधानसभा का बजट सत्र 7 मार्च को शुरू होकर 25 मार्च को स्थगित होना था। तेरह दिन सदन में कार्रवाई चलना थी। 16 मार्च को सदन अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया। 16 मार्च की दैनिक कार्यसूची देखते ही यह कयास लगाया जाने लगा था कि आज सदन का अंतिम दिन है । इसकी वजह है कि दैनिक कार्य सूची में प्रश्नकाल के लिए एक घंटे का समय निर्धारित होने के अलावा , पत्रों का पटल पर रखा जाना, नियम 138(1) के अधीन ध्यान आकर्षण , प्रतिवेदन की प्रस्तुति, याचिकाओं की प्रस्तुति, शासकीय विधि विषयक कार्य , वर्ष 2022-2023 के आय-व्ययक पर सामान्य चर्चा , वर्ष 2022-2023 की अनुदानों की मांगों पर मतदान , एवं शासकीय विधि विषयक कार्य संपादित करें जाना थे । वर्ष 2022-2023 की अनुदानों की मांगों पर मतदान के लिए ही 23 घंटे का समय निर्धारित किया गया था । इसके अलावा शासकीय विधि विषयक कार्य के दो विषयों के लिए एक घंटे का समय निर्धारित किया गया था । अगर दैनिक कार्यसूची के समस्त कार्यों को संपादित किए जाने वाले समय का आकलन किया जाए तो 16 मार्च को लगभग 27-28 घंटे का उल्लेख प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर था।
कार्यमंत्रणा समिति की भूमिका ?
सदन चलाए जाने को लेकर सारे निर्णय कार्यमंत्रणा समिति की बैठक में लिए जाते हैं । कार्य मंत्रणा समिति में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान , नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ , संसदीय कार्य मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा , वित्त मंत्री जगदीश देवड़ा , लोक निर्माण मंत्री गोपाल भार्गव , जल संसाधन मंत्री तुलसीराम सिलावट , नगरीय विकास एवं आवास मंत्री भूपेंद्र सिंह , खाद्य नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण, कुमारी मीना सिंह मांडवे कांग्रेस विधायक डॉक्टर गोविंद सिंह, के पी सिंह कक्काजू , कांतिलाल भूरिया, सज्जन सिंह वर्मा एवं नर्मदा प्रसाद प्रजापति है। सदन की कार्रवाई के दौरान कांग्रेस विधायक एन पी प्रजापति और सज्जन सिंह वर्मा बार बार सदन में बजट अनुदानों पर चर्चा की मांग करते रहे। जिसके जबाब में संसदीय कार्य मंत्री डॉ नरोत्तम मिश्रा इस मामले में नेता प्रतिपक्ष और चीफ व्हिप से बात करने का ताना देते रहे । गौरतलब है कि प्रजापति और वर्मा भी कार्यमंत्रणा समिति के सदस्य हैं । सवाल है क्या वर्मा और प्रजापति को कार्यमंत्रणा समिति में हुए निर्णय की जानकारी नहीं थी या फिर सदन स्थगित करवाने की रणनीति नेता प्रतिपक्ष और मुख्यमंत्री आपस में तय कर चुके थे । या फिर सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के मुखिया के बीच कोई अघोषित समझौता हो गया है ?
खुद की परंपरा ध्वस्त
जहां तक मुझे स्मरण है सन 1985 में तत्कालीन अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद शुक्ला की पहल पर मध्यप्रदेश विधानसभा में यह परंपरा डाली गई कि प्रत्येक विभाग की मांगों पर चर्चा अवश्य की जाएगी और कोई गिलोटेन(मुखबंद) नहीं होगा। इसके पीछे जहां सभी विधायकों को अपनी बात सदन में रखने का अवसर देने की मंशा थी वही यह आग्रह भी था कि हर कोई मंत्री अपने विभाग के संबंध में पूरी बातों का जिम्मेदारी के साथ खुलासा करें। कई वर्ष तक मध्यप्रदेश में यह परंपरा निभाई गई लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य के अलग होने के बाद स्वयं मध्यप्रदेश में यह परिपाटी टूट गई! ठीक वैसे ही जैसे उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को देने की परिपाटी टूट गई।
मेरी जानकारी में आज की तारीख में सिर्फ छत्तीसगढ़ विधानसभा ऐसी है जो अविभाजित मध्यप्रदेश विधानसभा की गिलोटिन नहीं करने की इस गौरवशाली परंपरा का निर्वाह कर रही है।
यदि संविधान के प्रावधानों की बंदिश नहीं हो तो 1 साल में 3 सत्र और इतनी बैठकें भी क्यों होनी चाहिए? जिसका बहुमत उसके पास विधानसभा का ठप्पा! जब मर्जी आए ,जहां मर्जी है लगाओ और लोकतंत्र के गुण गाओ!
लगता है कि सार्वजनिक जीवन की ही नहीं परिवारों में भी जवाबदेही खत्म होती जा रही है । मूल कारण यह है कि हमारी जीवन शैली के परिणाम स्वरूप हम ऐसे बन गये है। हममें कितने हैं जो रोज रात को अपने खुद के कार्यों का ब्यौरा खुद को देते हों और अपनी अंतरात्मा को ढूंढते हों।