इतिहास और भविष्य समान नागरिक संहिता नारा और झिझक

आलेखः
समान नागरिक संहिता
भूपेन्द्र गुप्ता
खबर नेशन/ Khabar Nation
समान नागरिक संहिता का आजकल बड़ा बोलबाला है क्योंकि चुनाव नजदीक है और कतिपय दलों का यह सोचना हो सकता है कि इस मुद्दे पर वह वोटों की नई फसल काट सकते हैं।
ऐसे समय में व्यक्तिगत कानूनों और उनके इतिहास को जानना देश और मतदाताओं के लिए उपयोगी हो सकता है ।
भारत में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान व्यक्तिगत कानूनों के निर्माण का विचार किया गया था किंतु अक्टूबर 1840 में लैंप लौकी रिपोर्ट ने इस पचड़े में ना पड़ने के लिए अपना मत दिया और मामला ठंडा पड़ गया। किंतु कालांतर में समाज में फैल रहे वैवाहिक झगड़े, संपत्ति के अधिकार आदि से त्रस्त अंग्रेजी सरकार ने हिंदू और मुसलमानों के लिए पर्सनल ला बनाए। इसी तरह गोवा में पुर्तगाली शासक थे वहां पर गोवा नागरिक संहिता बनाई गई। जो ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा अपनाए गए तरीके से अलग थी। वर्तमान में उसी कानून को गोवा में समान नागरिक संहिता भी कहा जाता है।
भारत के उत्तरी तथा पश्चिमी हिस्सों में महिलाओं के दहेज के संबंध में मत वैभिन्य तथा विरासत की संपत्ति में हिस्सेदारी को लेकर सामाजिक रोक रहती थी जबकि शरिया कानूनों में यह जायज था।
इन समस्याओं से निपटने के लिए अंग्रेजों ने 1844 में भारतीय विवाह अधिनियम बनाया,किंतु इन समस्याओं के समाधान में अधिक प्रगति नहीं हो सकी ।तब 1856 में ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे लोगों की प्रेरणा और सहयोग से हिंदू विधवा पुनर्विवाह कानून लागू हुआ ।
प्रगतिशील महिलाओं द्वारा बार-बार कुछ मुद्दों पर बहस शुरू करने के उपरांत 1923 के विवाहित महिला संपत्ति अधिनियम ने आकार लिया जिसे आगे जाकर 1937 में फिर संशोधित किया गया।
यह स्पष्ट है की सारे कानूनों के माध्यम से समाज में एक व्यवस्था बनाने की कोशिश होती रही। समाज में व्याप्त विसंगतियां ही इसका कारण थी ।एक ही संप्रदाय में अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रथाएं होने के कारण भी विवाद की परिस्थितियां बनी ही रहती थी। इन्हीं को देखते हुए संविधान बनाते समय तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं बाबासाहब भीमराव अंबेडकर ने ही यूनिवर्सल सिविल कोड यानि समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव संसद के सामने रखा था। लंबी चौड़ी बहसों के बावजूद दक्षिण पंथियों और परम्परावादियों तथा धार्मिक नेताओं के दबाव में यह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ सका। फिर भी जवाहरलाल नेहरू और भीमराव अंबेडकर की पहल पर यह विषय संविधान के निदेशक सिद्धांतों में जोड़कर इसे राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया। ताकि जिन राज्यों में इस पर सहमति बन जाए वहां पर इसे लागू किया जा सके ।
हालांकि ऑल इंडिया वूमेन कॉन्फ्रेंस की लक्ष्मी मैनन ने 1933 में पुरुष प्रधान कानूनों को मान्यता देने का विरोध किया और उन्होंने मांग की कि कांग्रेस के कराची अधिवेशन के लैंगिक समानता के सिद्धांत को कानूनी जामा पहनाया जाये।इसी दबाव के बाद 1937 में जीएन राव कमिटी बनी और 1944 और46 में बिल लाया गया जिसे देशमुख बिल भी कहा जाता है।
ऐसा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी के पितृ संगठन ने संविधान निर्माण के दौरान समान नागरिक संहिता के प्रस्ताव का विरोध करने के बावजूद इसे भाजपा के जन्म के बाद हवा में जिंदा रखा गया।1985 में भाजपा ने समान नागरिक संहिता को फिर से सुलगाना शुरू किया जिसका कि उन्होंने 1947 से 1956 तक विरोध किया था।
शाहबानो प्रकरण की धुंध ने इस विरोधाभास को आक्सीजन दी।मुस्लिम पर्सनल लॉ को निशाना बनाते हुए एकतरफा तलाक और बहु विवाह पर वह हमलावर होते चले गए ।
समान नागरिक संहिता दो बार भाजपा सरकार में प्रस्तावित हुई। नवंबर 2019 में और मार्च 2020 में यह प्रस्ताव भाजपा और संघ के मतभेदों के चलते संसद में प्रस्तुत किए बिना ही वापस ले लिए गए।
समान नागरिक संहिता मूलतः देश के कई कानूनों को प्रभावित करने वाली होगी।हिंदू मैरिज एक्ट, हिंदु सक्शेसन एक्ट, माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट, एडॉप्शन एंड मेंटिनेस एक्ट, इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट, इंडियन डायबोर्स एक्ट ,पारसी मैरिज एंड डायवोर्स एक्ट जैसे कानून प्रभावी नहीं रह जाएंगे। इसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई पारसी, बौद्ध, जैन सभी तरह के सामाजिक रीतियां और प्रथाएं प्रभावित होंगी ।
इसी को देखते हुए भाजपा की केंद्र सरकार ने यह विषय 2016 में कानूनी राय लेने के लिए भारत के विधि आयोग को सौंप दिया था। 2018 में विधि आयोग ने सरकार को जो अपनी रिपोर्ट पेश की है उसमें बताया गया है कि समान नागरिक संहिता लागू करने का यह उचित समय नहीं है। ऐसी राय आ जाने के बावजूद इस विषय को भाजपा द्वारा बार-बार उठाने का आशय यही हो सकता है की वोटों की बची खुची फसल को भी इस मुद्दे के माध्यम से हार्वेस्टिंग कर ली जाये, अन्यथा 2019 नवंबर 2019 या मार्च 2020 में ही यह मुद्दा संसद में आ जाता । हालांकि संविधान में यह व्यवस्था पहले से ही है कि राज्य चाहे तो अपने क्षेत्राधिकार में इस कानून को ला सकते हैं। तब सवाल यही उठता है कि जिन राज्यों में भाजपा 20 साल से सत्ता में काबिज है वहां पर समान नागरिक संहिता लागू करने का ख्याल उसके मन में क्यों नहीं आया? यह हिचक ही सबकी झिझक है।
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