महिला पत्रकार का मां बनना नौकरी से छुट्टी की गारंटी

खबर नेशन/ Khabar Nation

(लेखक शिफाली ईटीवी भारत से संबध्द हैं)

महिला पत्रकार...ये सुनकर आपके ज़हन में क्या अलग बात दर्ज होती है.  उसकी लिखी खबरों से आप हैरत में भी पड़े हैं और उसकी रिपोर्ट्स आपके भीतर समाज के लिए सहानुभूति भी जगाती आई हैं. पर क्या उस महिला पत्रकार की लिखी खबर के आगे वाकई उसकी खैर खबर ली गई. मां बन जाना किसी भी महिला पत्रकार के लिए पत्रकारिता से अघोषित विदाई क्यों है आज भी .मीडिया क्रांति के बावजूद अस्सी फीसदी महिला पत्रकार पहले बच्चे के बाद लंबे  ब्रेक की स्थिति में क्यों आ जाती हैं.  जो लौट भी पाती हैं तो बदली हुई भूमिकाओँ के साथ .  मां बन जाना उनके लिए अघोषित अलार्म होता है कि अब ज्यादा वक्त नहीं बचा. ये मानस बना हुआ है मीडिया में कि  बच्चा संभालने वाली खबरें कहां संभाल पाएगी. बात संविधान की प्रस्तावना में लिखी समानता की भी है.... न्याय और गरिमा की भी.....मध्यप्रदेश के प्रतिष्ठित संस्थानों मेंआज भी अपनी मेहनत से डटी हुई इन महिला पत्रकारों के लिए प्रैग्नेंसी का समय सुरक्षित निकाल पाना  माउंट एवरेस्ट की चढाई से कम जोखिम भरा नहीं है. मातृत्व से जुड़े सुरक्षा सम्मान के नाम पर केवल अवकाश आता है महिला पत्रकारों के हिस्से. वो भी इस जोखिम के साथ कि जाने अवकाश से लौटने के बाद नौकरी उसी रफ्तार से आगे बढ़ पाएगी की नहीं. 
शूट से लौटी और ऑफिस में ही ब्लीडिंग शुरु हो गई 
पत्रकार प्रीति फिर कभी मां नहीं बन पाई. क्या ये खबर बन सकती है. इससे राजनीति का क्या लेना देना. समाज को इससे कोई फर्क पड़ेगा क्या. मातृत्व अवकाश एक संवैधानिक अधिकार है और इससे इंकार संविधान की धारा 29 और 39 का उल्लंघन है. ये किताबी बातें लग सकती हैं आपको. किताबी ही रही भीं. क्योंकि अपनी खबरों में जाने कितनी गर्भवती महिलाओँ की सुरक्षित मातृत्व के लिए झंडा उठाती रही प्रीति अपनी खबर नहीं लिख पाई. वो खबर नहीं बन सकती थी. खबर हुई भी नहीं किसी को. लेकिन एक बेरहम पेशा. जिसमें मानवीयता न्याय समानता और सम्मान ये संवैधानिक मूल्य हमेशा हाशिए पर रहे.  प्रीति एक पत्रकार है. पत्रकार आज भी है. लेकिन गर्भ में पल रहे अपने बच्चे की कुर्बानी देकर.  
प्रीति बताती है.... उस दिन सुबह मुझे सीएम हाउस जाना था और फिर भाजपा कार्यालय। ड्राइवर अपनी आदत के मुताबिक गाड़ी भगा रहा था। मुझे पेट में कुछ महसूस हुआ..दर्द, ऐंठन, अजीब सा। वो दिन बहुत मुश्किल बीता। दोपहर होते होते मुझे ऑफिस में ही ब्लिडिंग शुरू हो गई थी। मेरा मिसकैरेज हो गया था। मैं किसी तरह घर पहुंची, हम डॉक्टर के पास गए। चेकअप के बाद डॉक्टर ने कहा कि d&c करनी पड़ेगी। वो सब बहुत कष्टदायक था। शारीरिक और भावनात्मक रूप से भी। इसके बाद काफी दिन छुट्टी पर रही। दफ्तर के लोग मिलने आए, सहानुभूति भी जताई। लेकिन मुझे लगता रहा कि जो सहानुभूति अब जता रहे हैं...काम के समय ज़रा भी संवेदनशीलता बरती जाती मेरे साथ तो ये हादसा नहीं होता। 

.ये बात है साल 2009 की। आठ साल हैदराबाद, दिल्ली के न्यूज चैनल्स में काम करने के बाद मैं कुछ समय के लिए गृहनगर भोपाल लौटी थी। इससे पहले मैंने डेस्क पर काम किया था। टीवी में आउटपुट डेस्क..रिपोर्टर जो खबरें भेजते उन्हें बनाने से लेकर ऑन एयर करने तक की प्रक्रिया होती है वहां। क्योंकि भोपाल ट्रांसफर निजी कारणों से लिया था और ब्यूरो में डेस्क थी नहीं तो यहां पहली बार माइक थामा और कैमरा फेस किया।

मुझे पॉलिटिकल बीट मिली। सीएम हाउस, बीजेपी, विधानसभा और यदा कदा कांग्रेस भी। इसके अलावा एजुकेशन भी था मेरे पास साइड बीट के रूप में। सामान्यतया मैं मॉर्निंग शिफ्ट में होती तो हमें ही खबरों की बोहनी करनी होती थी। ये एक बड़ा प्रेशर भी था क्योंकि मैं एमपी-सीजी (मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़) रीजनल चैनल में भी और भोपाल मध्य प्रदेश की राजधानी। इसलिए सुबह ऑफिस पहुंचते ही भागमभाग शुरू हो जाती। गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर से हम कहते ‘जल्दी चलो।’

‘गाड़ी थोड़ा धीरे चलाना..संभलकर’...ये बात नहीं कह पाई मैं। वो मेरी पहली प्रैग्नेंसी थी  और उस समय कुछ समझ नहीं आ रहा था कि काम, शरीर की अजीब सी तासीर और बदलते मूड को कैसे बैलेंस करूं। अपने ब्यूरो चीफ को बता दिया था प्रेग्नेंसी के बारे में। उन्होने औपचारिक रूप से कह दिया ‘संभलकर रहना।’ लेकिन यही इतिश्री थी। न तो शिफ्ट के समय में बदलाव, न ही काम में कोई रियायत, न ही भागमभाग से मुक्ति। और मैं हमेशा यही सोचती थी कि प्रोफेशन तो खुद चुना है..फिर ऐसी कोई अतिरिक्त अपेक्षा भी क्यों करूं। बाद में ‘फेमिनिज़्म’ पर समझ साफ हुई तो कई बातें सीखीं, लेकिन हम भी तो होते होते ही ग्रो करते हैं। मुझे याद नहीं कि उस समय किसी भी तरह से ऑफिशियली कोई राहत मिली हो।
ख़ैर..वक्त बीत गया। हर वक्त बीत जाता है। लेकिन कई सवाल पीछे छोड़ा जाता है। आज चौदह साल बाद भी तमाम नियम-कानून बनने के बाद भी..कार्यालयों में महिलाओं के साथ होने वाले व्यवहार की वास्तविकता बहुत बेहतर नहीं हुई है। अब भी मुझे बीता हुआ समय सालता है..और हालिया स्थिति परेशान करती है। अब भी बहुत परिवर्तन होना बाकी है। चाहती हूं मैं अपने जीवनकाल में एक अच्छी तस्वीर देख सकूं महिलाओं की...चाहे वो निजी जीवन हो या फिर कार्यालयीन।
6 महीने की मैटरिनटी लीव जैसे मुसीबतों का पहाड़ 
देश के प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में काम कर रही रिया के लिए प्रैग्नेसी संभालने से ज्यादा बड़ी चिंता ये थी कि 6 महीने की मैटरिनिटी लीव उसकी नौकरी ना लील जाए. रिया ने जोखिम नहीं लिया. रिया बताती हैं मैने छै महीने की छुट्टी के बावजूद 2 महीने के बाद से एक दो स्टोरी भेजना शुरु कर दिया था. छै महीने गुजरे लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि असली इम्तेहान अब शुरु होना है. ऑफिस ज्वाइन करने के बाद मैंटल प्रेशर बहुत बढ़ गया. इसकी वजह थी ऑफिस कलीग्स का बिहेवियर उन्हें लगता था कि मैं छै महीने एश करके आ रही हूं. एक दिन की लीव भी मांग लो तो ऐसा लगता कि कोई गुनाह कर लिया हो. बेटा छै महीने का था इधर पैरेटिंग के लिहाज से भी सबसे मुश्किल दिन. उधर नौकरी की फिक्र. कई बार रात भर जागती थी और सुबह फिर काम में जुट जाती थी. मैटरनिटी लीव के बाद सगे भाई की शादी थी चार महीने बाद चार महीने मैने बगैर लीव के काम किया. और जब चार महीने बाद छुट्टी मांगी भाई की शादी के लिए तीन दिन की छुट्टी मांगी तो मना कर दिया गया. शादी अटैंड करने मुझे अपने शहर जाने की छूट मिली लेकिन इस शर्त के साथ कि काम करती रहूंगी. पूरी शादी में मैं लैपटॉप लिए बैठी रही. फिर कहा गया कि मेरी परफार्मेंस अच्छी नहीं है. जब मुझे ये कहा गया वो नवम्बर का महीना था.  इतना प्रेशर था कि लगा जर्नलिज्म का क्या होगा. मेरा पैशन है जर्नलिज्म मैं नहीं चाहती थी कि उस पर सवालिया निशान लगे.  कोरोना भी बढ़ना शुरु हो गया था उन दिनों फील्ड पर जाने की मजबूरी और रिस्क ये कि छोटे बच्चे का साथ. फिर मैने 24 घंटे मे से 16 घंटे काम करना शुरु किया.  बहुत प्रैशर में बहुत मेहनत की. घर वाले भी कहने लगे दूसरी नौकरी देखो ऐसे कैसे जिंदगी जीओगी. लेकिन मार्च मैं टॉप बॉसेस को मेहनत दिखी और मेरा प्रमोशन हो गया. आज भी दो सौ परसेंट देने की कोशिश करती हूं. चाहे बेबी बीमार हो या कोई और प्रॉब्लम . एक्सक्यूज तो देने की सोच भी नहींद सकते. कॉनस्टिट्यूशन से मिले अधिकार अपनी जगह हैं लेकिन जो संवैधानिक मूल्य हैं मानवता की समानता की जो बात है वो मुझे अपने मातृत्व के दौरान कहीं दिखाई नहीं देती. 

ऑपरेशन करवा के खुद ड्राइव करके ऑफिस गई 
पब्लिक ब्राडकास्ट के साथ काम कर रही देवश्री  कोविड की दूसरी लहर में प्रैग्नेंट हुई. लेकिन उसे वर्क फ्राम होम नहीं मिला था. यूं पूरा ऑफिस तैयार था उसकी हालत देखकर कि उसे वर्क फ्राम होम की सुविधा दी जानी चाहिए. लेकिन फिर भी दिक्कत थी. देव श्री खुद बताती है, मेरी फीमेल बॉस मुझे ऑफिस क लोगो की मदद से आसानी से  वर्क फ्राम होम दे सकती थी. लेकिन उन्होने दिल्ली से अनुमति मांगी. दिल्ली ने ये कहकर इंकार कर दिया कि  किसी भी स्टेशन पर वर्क फ्राम होम नहीं दिया तो नहीं दे सकते. ये बताते समय देवश्री की आंखे भर आती हैं , कहती है दूसरा मुश्किल वक्त प्रैगेन्सी के पांचवे महीने में आया जब डॉक्टर ने बताया कि मेरे सरविक्स का मूंह खुल रहा है जिससे कि गर्भपात का खतरा हो सकता है. इसलिए उसी समय़ एक सर्जरी भी हुई जिसे मेकडोनल्ड स्टिच लगाना भी बोलते हैं उसके बाद मुझे कम्पलीट बैड रेस्ट बोला गया लेकन मैं फिर भी ऑफिस गई खुद ड्राइव करके. कारण ये कि अगर पहले छुट्टी ले लेती तो  ऑफिस वाले दिक्कत करते और लीव विदाउट पे की पोजीशन में मैं थी घर मैं अकेली कमाने वाली हूं. . देवश्री कहती है हमारा अधिकार भी हमें अहसान की तरह मिलता है ऐसा क्यों हैं. ये कंडिशनिंग कैसी है....वो याद करके बताती हैं मैं टरनिटी लीव के लिए एप्लाय़ कर रही थी. तब एक मेल सीनियर कलीग ने बोला था. 6 महीने बहुत ज्यादा नहीं है. ये बात मेरे ज़हन से नहीं जाती. 

दिव्या इस समय भी देश के एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनल में एंकर है. शादी को दो साल बीत चुके हैं. ये उसकी पहली प्रैग्नेंसी है मैटरनिटी लीव में कोई दिक्कत ना आए इसलिए शुरुआत के तीन महीने स्वास्थ्यगत परेशानियां होते हुए भी उसने छुट्टी नहीं ली. लेकिन दिव्या खुद बताती है, चौथे महीने में परेशानी हुई .डॉक्टर ने मुझे बैडरेस्ट बोल दिया था. अभी तक मैने बताया भी नहीं था कि मैं प्रैग्नेंट हूं. वो भी इस डर से कि कहीं नौकरी पर कोई बात ना आए. मैने उस दिन अपने इंचार्ज से कहा सर..मैं प्रैगनेंट हूं  और डॉक्टर ने कुछ कॉम्पिलिकेशन्स बताएँ है. बैड रेस्ट का बोला है. दिव्या कहती है यूं समझो उनको करंट लग गया. मार्निंग शिफ्ट मैं ही सँभालती थी एंकर बतौर. झटके से उबर कर बोले.. थोड़े दिन रुक जातीं इतनी जल्दी खुशखबरी देने की क्या जरुरत थी. वो वाक्य आज भी मेरे ज़हन से नहीं निकलता. न्यूज मीडिया के जुबान में ये टीज़र देख लेने के बाद अब मेरी फिक्र और बढ़ गई है कि मां बन जाने के बाद ये मीडिया मुझे एक्सेप्ट कर पाएगा कि नहीं. 

नई मां के लिए कोई कोना नहीं दफ्तर में 
मध्यप्रदेश जैसे राज्य में तकरीबन सभी बड़े मीडिया संस्थानों के दफ्तर हैं. और कईयों में महिला पत्रकार भी बड़ी तादात में हैं. लेकिन उन संस्थानों में नई मां के लिए एक कोना भी नहीं है. फिर वो छोटे बच्चो को अपने साथ लेकर आ सकें और झूला घर मेंरख सकें ये सुविधा भी नहीं. प्रज्ञा एकल परिवार में है घर मेंबेटी की देखरेख करने वाला कोई नहीं. जब झूलाघर की छुट्टी होती है तो अपनी बेटी को न्यूज के दफ्तर साथ ले आती है. ये कुछ दिन तो चल पाया फिर उसके कानों में ये ताने आने लगे कि दफ्तर को झूलाघर समझ लिया है क्या. प्रज्ञा जैसी कई महिला पत्रकार जिनकी पत्रकारिता पर ब्रेक पहले बच्चे के पैदा होने के साल छै महीने बाद ही लग जाता है. वजह ये कि नई मां की जरुरतों को समझते हुए मीडिया हाउसेस तैयार ही नहीं किए गए. वहां कोई इस तरह का स्पेस ही नहीं दिया गया कि जहां मांए काम के साथ अपनी इस जिम्मेदारी को भी निभा सकें. 

ये वो तबका है जो संवैधानिक मूल्य भी जानता है. अपने अधिकारों के लिए भी सजग है. ये वो तबका है महिलाओँ का जो अपनी जैसी तमाम महिलाओँ के इंसाफ का झंडा उठाए रहता है. देखिए कि उस गरिमा के साथ समानता का मातृत्व मिल पाया है. . 

लिखें और कमाएं       

मध्यप्रदेश के पत्रकारों को खुला आमंत्रण । आपके बेबाक और निष्पक्ष समाचार जितने पढ़ें जाएंगे उतना ही आपको भुगतान किया जाएगा । 1,500 से 10,000 रुपए तक हर माह कमा सकते हैं । अगर आप इस आत्मनिर्भर योजना के साथ जुड़ना चाहते हैं तो संपर्क करें:

गौरव चतुर्वेदी

खबर नेशन

9009155999

Share:


Related Articles


Leave a Comment