मैं पकौड़ा हूँ

सचिन चौधरी

मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार सचिन चौधरी इन दिनों अलग शैली के माध्यम से समसामेक मुद्दों पर अपनी तीखी और व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पकौड़ा तलने संबंधी रोजगार को लेकर की गई टिप्पणी पर यह व्यंग्य।


नमस्कार देशवासियों। मैं आपका प्रिय पकोड़ा। नाम से विविधता भरा हुआ। कहीं कहलाता भजिया तो कहीं मंगौड़ा। मेरे नाम, आकार, तत्व से लेकर मेरे स्वाद तक में गजब की विविधता है। कहीं उड़द की दाल से तो कहीं मूंग की दाल से। कहीं कुछ न मिला तो आलू प्याज को बेसन में लपेट कर मेरे नाम का बिल फाड़ दिया जाता है। मेरा नाम जुड़ा नहीं कि बस लोगों के मन में पानी आना शुरू। फाइव स्टार में भी मेरी डिमांड है और सड़क छाप ठेले की भीड़ भी कढ़ाई से मेरे बाहर आने के इंतजार में उत्सुक रहती है। इसके साथ ही भिन्न भिन्न प्रकार की चटनी मेरे व्यक्तित्व में चार चांद लगाती रही हैं। कहीं टमाटर तो कहीं इमली। मितरो, बचपन से मेरी एक शिकायत रही है। गजब का स्वाद होने का गुण होने के बावजूद मेरे फिगर को लेकर हमेशा मुझे नीचा दिखाया गया। जब भी किसी इंसान की नाक चौड़ी हो, भद्दी हो, बड़ी हो तो मुझसे तुलना करके कहा जाता कि देख तो पकोड़े जैसी नाक है। यह भी कोई बात हुई भला। गुणी चरित्र वालों का चेहरा कैसा भी हो क्या मायने रखता है। खैर.. आजादी के सत्तर बरस से लोगों की सेवा और बदले में अपने रूप पर जलालत भरी टिप्पणी झेलते आ रहे थे। लेकिन वक्त सबका आता है। आखिरकार इस पकोड़े के अच्छे दिन आ गए। देश के प्रधानसेवक ने न केवल पूरे देश के सामने मेरा नाम लिया बल्कि मेरे जरिए रोजगार कमाने वाले को भी अपनी उपलब्धियों में शुमार किया। हालांकि इस उपलब्धि को भी मेरे विरोधी चाय पकोड़े के पुराने संबंधों से जोड़ रहे हैं। लेकिन विरोधियों को छोड़ मेरे गर्व के आप साझीदार बनिए। 
 

जरा बताइए कि जिस देश में बच्चा गर्भ में आते ही उसके मां - बाप आईआईटी और आईआईएम भेजने के सपने देखने लगते हैं। जहां हर साल लाखों डॉक्टर, इंजीनियर पढ़ाई करके निकलते हैं। उन सबको भूल राष्ट्र सेवक ने इस गरीब पकोड़े के जरिए रोजगार को ही ध्यान में रखा। कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति की चिंता करना, यही तो अंत्योदय का मूल है। अद्भुत गौरवमयी पल है इस पकोड़े के लिए। क्या फर्क पड़ता है कि लाखों इंजीनियर आज बेरोजगार हैं। क्या लेना देना कि मंदी की मार लाखों नौकरियां खा गईं। देश में इतने इंजीनियरिंग कॉलेज खोलकर बेरोजगार ही पैदा हुए। इन नालायकों में हुनर की कमी थी। मुझ पकोड़े को चटखारे लेकर खाने के साथ कभी मेरे स्वाद की तह में गए होते तो आज यह दिन न देखना पड़ता। एक छोटा सा ठेला, इलाके के विधायक को रोज 50 रुपए की रिश्वत और रोजगार चालू। न तो करोड़ों खर्च करके खुद को दूध का धुला बताना पड़ता है और न ही शाह जादे की तरह 80 करोड़ के हिसाब किताब की टेंशन। अब भी समय है। पकोड़ा तलना सीख लो। किसी भी चौराहे पर खड़े हो जाओगे तो बेरोजगारी के दंश से आत्महत्या की नौबत नहीं आएगी। चाय बेचकर क्या किया जा सकता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देश के सामने है। इसलिए आओ सब पकोड़ा बेचें। (खबरनेशन / Khabarnation)
 

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