कोरोना ने हमें ईश्वर से सीधे संपर्क में लाकर आस्था पूर्वक जीना सीखा दिया

 

"कोरोना ने हमारे जीवन में कई परिवर्तन उतपन्न किये हैं, हमारी जीवन शैली बदली है, हमारी सामाजिक व्यवस्थाएं बदली है यहां तक की हमारी धार्मिक आस्थाओं में भी बदलाव आया है"

राजकुमार जैन

कम्प्यूटर इंजीनियर

 

समस्त पूजा स्थल दीर्घकाल तक वीरान रहे। क्या हम इसे  ईश्वर की शक्ति और मनुष्य की भक्ति दोनों की हार मान लें ?

 

 

 

पिछले लम्बे समय से हम इस कोरोना या कोविड-19 नामक आपदा से लड़ रहे हैं । इस संकट ने हमारे जीवन में कई परिवर्तन उतपन्न किये हैं, हमारी जीवन शैली बदली है, हमारी सामाजिक व्यवस्थाएं बदली है यहां तक की हमारी धार्मिक आस्थाओं में भी बदलाव आया है ।

पहले जहां भक्तों का, अनुयायियों का सतत तांता बंधा रहता था वहीं इस विपदा के चलते सम्पूर्ण भूलोक में समस्त पूजा स्थल दीर्घकाल तक वीरान रहे। क्या हम इसे  ईश्वर की शक्ति और मनुष्य की भक्ति दोनों की हार मान लें ?

मानव इतिहास का यह एक अत्यंत दुःखद एवं अकल्पनीय अध्याय था जो सम्पूर्ण विश्व की समस्त ताकतों के इसे रोकने के हरसम्भव प्रयासों के बाद भी घटित होकर ही रहा, किसीके रोके ना रुका, ना फरिश्तों से ना मानव से, दोनों बेबस, अपने अपने घरौंदों में बन्द होकर रह गये । 

 

अब जब धीरे धीरे लॉकडाउन खुल रहा है और वीरानों की रौनक लौटने लगी है तो आपको पुनः बरगलाने के लिए चीख चीख कर यह कहा जाएगा कि यह हम इंसानों की गलतियों की सजा है । शायद यह प्रपोगंडा शुरू हो भी चुका है कि यह आपके पाप कर्मों का फल है, और हम इसे स्वीकारने भी लग गये हैं,  लेकिन रुकिये, आप इनके बहकावे में ना आईये, क्योंकि आपको इनकी कतई कोई जरूरत नहीं है ।

आईये ईश्वर के अस्तित्व में सम्पूर्ण आस्था और विश्वास रखते हुए बिना किसी पूर्वाग्रह के इसे तरतीब से समझने का एक ईमानदार प्रयास करते हैं, हम कह सकते हैं कि "ईश्वर" कैसे अपनी जिम्मेदारी से मुंह छुपा सकते हैं, अपनी संतानों को मरते हुए कोई कैसे देख सकता है ? यह एक निर्विवादित सत्य है कि हमारे बन्धु बांधव जो कोरोना संक्रमण के चलते असमय मृत्यु को प्राप्त हुए हैं उनमें से अधिकतर सामान्य जीवन जीने वाले, निर्दोष और भगवान में अटूट आस्था रखने वाले आम इंसान थे, ना कि प्रकृति से खिलवाड़ करने वाले बड़े नीति निर्धारक या उद्योगपति । "करे कोई भरे कोई" यह तो हमारी आस्था के सर्वोच्च शिखर पर आसीन उच्चतम न्यायाधीश परमपिता का न्याय नहीं हो सकता ना, हम कैसे यह मान लें कि यह हमारे उन पापों की सजा है जो हमने किये ही नहीं । हमें ईश्वर के विधान पर अटल विश्वास है कि वो ऐसा नहीं कर सकते ।

 

और आगे.... सम्पूर्ण विश्व के अलग -अलग धर्मों, पंथों, सम्प्रदायों के वो तथाकथित चमत्कारी देवदूत (या अन्य जो भी पदनाम हो) जो मनुष्य की किसी भी व्याधि या समस्या के तुरन्त निदान का दम्भ भरते थे, वो इस कठिन समय में जब उनके भक्तों को उनकी सबसे अधिक आवश्यकता थी तब उन्होंने मानवता की सहायता के लिए क्या किया ? वो तो स्वयम की चिंता कर, मुंह छुपा कर पता नहीं कहां अंतर्ध्यान (क्वारण्टाइन) हो गए, कोई भी धर्मगुरू अपने अनुयाई साधारण मानवों के बीच उनका कष्ट निवारण करने नहीं आया ।

 

इस अभूतपूर्व संकट काल (या प्रलयकाल भी कह सकते हैं) में …. 

मानवता की सेवा किन्होंने की ?

किसने हमें सम्बल बंधाया ?

किसने आवश्यक मदद पहुंचाई ?

किसने अपनी जान दांव पर लगाकर जिंदगियां बचाई ? 

कौन मानवता के लिए शहीद हुआ है ?

यह हम सबने देखा है ।

 

अब यह मत कहिएगा कि वो भी उस "तथाकथित ईश्वर का कारनामा था", यदि उस ईश्वर को ही यह कार्य करवाना था तो वो अपने स्वघोषित नियमित माध्यमों का ही उपयोग करते, लेकिन वो सब तो अंतर्ध्यान हो गए थे, मानव सभ्यता की अब तक की सबसे बड़ी त्रासदी में अपने भक्तों को उनके हाल पर मरता हुआ छोड़कर । उन्होंने तो "अपने कर्मों का फल भोगो" यह एक वाक्य या जुमला उछालकर सम्पूर्ण निर्लज्जता से आपके दु:खों से पल्ला झाड़ लिया और अपने अनुयाइयों को मौत का निवाला बनने के लिए नि:सहाय छोड़ दिया, बचाने का कोई प्रयास तक नहीं किया ।

 

परमपिता ईश्वर जो कि सर्वज्ञ हैं उन्होंने मानवता की सेवा करने का दायित्व किसको सौंपा ? यह हम सबने देखा भी है और महसूस भी किया है, ये वो देवदूत थे जिनसे हम अब तक अनजाने थे, चाहे वो डॉक्टर हों या नर्स हो या पुलिसकर्मी या अन्य शासकीय कर्मचारी या अनजाने सेवाभावी व्यक्ति, ये हमारे लिए एक अचंभित करने वाला वाकया था । हमने देखा कि जो कोई भी ईश्वर से निकटता का दम्भ भरते थे ईश्वर ने उनको दरकिनार कर अपनी उन सन्तानो पर अपना विश्वास जताया जिनको हम सामान्यतया एक साधारण मनुष्य ही समझते आये थे । तो अब आप समझ चुके होंगे कि कौन है हमारी आराधना एवं हमारी प्रशंसा के असली हकदार ?

 

यही वह समय है जब हम गढ़े हुए, घुट्टी में पिलाये हुए अंधविश्वास को तिलांजलि देकर जागॄत होने का एक सशक्त प्रयास कर सकते हैं। यह सही समय है अपने ईश्वर की सच्चाई को पहचानने का ।

 

इस विपदाकाल में आपने देखा कि वो फलानी जगह के बड़े गौरवशाली भगवान भी इस संकट को हरने में किसी के भी कोई काम नहीं आये, इस विकट समय में आपका सम्बल किसने बढाया ? आपके अपने घर में विराजमान भगवान जी ने और आपके काम आई है आपकी अपनी स्वंय की आस्था एवम आपका आत्मविश्वास । 

 

अब तो मानिए कि यही सच्चा ज्ञान है, हम मानवों को, ईश्वर की संतान को उस परमपिता ने परिपूर्ण बनाया है, उसे ईश्वर से संवाद करने के लिए ना तो किसी महान दैवीय स्थल की यात्रा करने की आवश्यकता है ना ही ईश्वर को महसूस करने के लिए किसी मध्यस्त या मार्गदर्शक की ।

 

इस बात को भलीभांति समझने के लिए आईये एक वैचारिक प्रक्रिया करके देखते हैं, अपने दिल पर हाथ रखकर सम्पूर्ण ईमानदारी से अनुभव करिये कि क्या इन दुर्दिनों में जब आप कोविड-19 लाकडाउन के तहत अपने घर में, अपने घर के पूजा स्थल पर विराजमान अपने पूर्णकालिक भगवान के साथ बन्द थे, तब आपने अपने पिछले जीवनकाल की बजाय इन दिनों अपने आराध्य ईश्वर को नजदीक से महसूस किया या नहीं ? 

 

आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय रूप से हम में से बहुतों को ईश्वर से इस नजदीकी की यह अनूभूति बिना किसी मार्गदर्शक या मध्यस्थ के प्राप्त हुई है ।

 

और आपको यह विश्वास करना चाहिए कि उस परम शक्ति को महसूस करना कोई बड़ी बात या गूढ़ ज्ञान नहीं है, यह तो प्रक्रिया रहित एक अत्यंत सरल कार्य है, ईश्वर को महसूस तो एक नवजात शिशु भी कर लेता है । हम मानते हैं कि बच्चों के मन में भगवान बसता है तो बताइए बड़े होने पर हमारे मन में बसे भगवान कहाँ चले जाते हैं ? जब भी हम पर कोई बहुत भयंकर ऐसी विपदा आती है कि साक्षात मौत समक्ष दिखाई पड़ने लगे तब पल भर में ईश्वर से हमारा सशक्त नाता जुड़ जाता है, सोचिए यह चमत्कार कैसे हो जाता है ? वस्तुतः ईश्वर हमारे अंदर बसी आत्मा या उस परम ऊर्जा के दिव्यांश के रूप में जन्म से ही हमारे साथ रहते हैं, लेकिन हम अपने अर्जित सांसारिक ज्ञान के कोहरे की परत दर परत चढ़ाते हुए उस दैवीय अहसास को खो बैठते हैं, ईश्वर से जुड़ा हमारा सीधा सम्बन्ध कमजोर पड़ता जाता है और हम अंधकार के गर्त में गहरे उतरते जाते हैं, जब हम इस दुनियादारी की धुंध से सब तरफ से घिर जाते है और रोशनी दिखाई पड़ना बन्द हो जाती है तो फिर हम हमारे अंदर ही जल रही उस दिव्य लौ के प्रकाश के पुनः दर्शन करने को आतुर होकर हम गुरु, ग्रन्थ, क्रिया, प्रतिक्रिया के उलझन भरे संसार में भटकने लगते है और निरन्तर छटपटाने हुए भटकते ही रहते हैं, लेकिन अंत में आना स्वयम के पास ही पड़ता है । जैसे आपको प्रतिदिन अपने ही घर पहुंचना बहुत आसान लगता है और उस जाने पहचाने रास्ते को आप ज्ञान नहीं मानते, कोई नामीगिरामी ज्ञानी आपको हजारों किलोमीटर भटका कर, नदी पहाड़, जंगल आदि की पैदल और भूखे प्यासे सैर करवाकर जब आपको अपने ही घर पहुंचाता है तो आपको सेंस ऑफ अचीवमेंट लगता है । और लगता है कि यह असली ज्ञान है जो मैंने अपनी मेहनत और तपस्या से अर्जित किया है । इसी तरह यह बात कि ईश्वर को प्राप्त करना बहुत दुष्कर कार्य है आपके अंतर्मन में, आपके अवचेतन मस्तिष्क में कुछ इस तरह ठोक-पीट कर भीतर तक गहरे घुसा दी गई है कि आप उससे परे जाने का साहस ही नहीं कर पाते ।

 

अब तो समझ लीजिये, यही एकमात्र अटल सत्य है कि अपने पिता अपने ईश्वर को नजदीक से महसूस करने के लिए आपको किसी भी अन्य माध्यम की लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है । 

 

अपनी स्वयम की चेतना में विश्वास ही एकमात्र रास्ता है ईश्वर प्राप्ति का उस परमपिता का कृपापात्र बनने का ।

 

यदि  इस लेख को पढ़ने वाले लोग  ईश्वर की आराधना करते हैं, तो उनके लिए सन्त कबीर,सन्त रैदास या शंकराचार्य उत्तम उदाहरण हो सकते हैं, जिन्होंने कहा था कि ईश्वर मेरे अपने ही अंदर है, या मैं ही ईश्वर हूं।

 

उनका ऐसा कहने के पीछे यही कारण रहा होगा कि हम अपना ही आत्मविश्वास बढ़ाएं, खुद की शक्तियों को जागृत करें, और इस संसार रूपी मायाजाल रचित चक्रव्यूह में जीते रहने के लिए स्वयम को सबल बनाएं ।

 

कमोबेश प्रत्येक धर्म या पूजा पद्धति या आस्था मार्ग के अंत में यही बात आती है कि हम खुद ही अपनी जिंदगी को जीने के लिए सबल बनें, और, इस विपदा ने हमें यह अच्छी तरह से सिखा भी दिया है।

 

और एक बात, हम यह मानते हैं कि भगवान ही इस सृष्टि के रचनाकार हैं यानि ईश्वर का वजूद मानव के लिए प्रथम दिन से ही है, जब इस धरा पर पहली मनुष्य बस्ती बसी थी तब ना तो ठीक से कोई बोली थी ना ही कोई लिपि,  अतः कोई भी संकलित ज्ञान किसी भी रूप में उपलब्ध नहीं था लेकिन फिर भी हमारे वो पूर्वज भगवान को जानते थे वो उस परमशक्ति के सीधे सम्पर्क में थे, सोचिए कैसे ? इस संसार में हर चीज विकसित होती है, जैसे पहिये से विमान तक का सफर लेकिन भगवान ... भगवान तो आदिकाल से ही जैसे थे वैसे ही आज भी हैं वो तो इवॉल्व नहीं होते ना तो जब मानव के पास कोई ज्ञान नहीं था तब वो भगवान को सहज भाव से महसूस करता था लेकिन आज जब अनन्त ज्ञान उपलब्ध है तो हम भगवान को दर दर ढूंढते रहते हैं, तो क्या यह मानव रचित ज्ञान हमें ईश्वर के नजदीक ले जाने की बजाय दूर ले जा रहा है ?

 

कोरोना को धन्यवाद कहिए कि उसने हमें बिना पत्थर या बिना गुरु के ईश्वर के प्रति आस्था सहित जिंदा रहना सिखा दिया है।

Share:


Related Articles


Leave a Comment