कोरोना काल में नफरत के वायरस
सोमदत्त शास्त्री
ये कैसा नया भारत गढ़ रहे हैं हम जहां खूंरेज फिरकापरस्ती है। जातिगत रंजिशें हैं। भूख गरीबी जहालत है और इंसानों में एक दूसरे को लेकर दिलों में खौलता नफरत का लावा है जो गाहे ब गाहे मॉब लिंचिंग की भयावह शक्ल में सामने आता है। सोशल मीडिया के झूठ उगलते संदेशों ने एक बड़ा काम किया है कि मॉब लिंचर्स गाँव.गाँव में पैदा कर दिए हैं। कब इनका रौद्र रूप खून खराबे पर आमादा हो जाए कहना मुश्किल है। नफरत का रंग कितना सुर्ख होगाए इसका अंदाजा इसी से लगता है कि सब्जी खरीदते हुए माँ.बहनें रेहड़ी वाले से सीधे.सीधे उसकी जात पूंछती हैं या फिर वह केसरिया पताका देखती हैंए जिससे उसकी शिनाख्त अपने या पराये के रूप में हो सके।
धर्म.जातिए सम्प्रदाय की गहरी रेखायें हमारे समाज को पहले ही विभाजित किए हुए थीं अब एक नया विभाजन भी धीरे.धीरे आकार ले रहा है। यह विभाजन मध्यमवर्गीय और गरीबों के दरमियान होने जा रहा है। दोनों एक दूसरे को हिकारत की नजर से देखने लगे हैं। गरीबों को लगता हैए उसकी मेहनत का फल मध्यमवर्गीय लोग डकार रहे हैं और ऐश कर रहे हैं जबकि मध्यमवर्गीय लोगों को लगता है कि मेहनत के पैसों से टैक्स हम भर रहे हैं और सरकारी सब्सिडी में गरीब गुलछर्रे उड़ा रहा है। यह और बात है कि गरीबों तक पहुंचने वाली सब्सिडी का मोटा हिस्सा सरकारी मशीनरी के विशालकाय उदर में ही कहीं खप जाता है। कट कटा कर जो कुछ गरीबों के पल्ले पहुंचता हैए वह ऊंट के मुंह में जीरे से ज्यादा नहीं होता। रातोंरात नोटबंदी हो या लॉकडाउन होए इन सभी घटनाओं का निर्मम प्रहार उन गरीब.गुरबों पर हुआ जो समाज के अंतिम पायदान पर खड़े हरदम सरकारी मदद के तलबगार होते हैं। हैरानी की बात यह है कि राजनीति ने इन घटनाओं पर चाहे जैसी हायतौबा मचाई होए किसी गरीब ने उफ तक नहीं किया और सरकार में बैठे नुमाइंदों ने इसे अपनी कामयाबी में सुमार कर लिया।
कोरोना के लॉकडाउन में गुरबत का त्रासद चेहरा प्रवासी मजदूरों के परेशानहाल जत्थों के रूप में सामने आया। वो जिनके पैरों में छाले हाथों में बिवाई थीए ये तो वही थे जिनके दम पर अमीरों की गगनचुंबी अट्टालिकाएं खड़ी होती हैं और ड्राइंगरूम चकाचक रहते हैं लेकिन विपदा की घड़ी में इनके पुरसाने हाल जानने की फुरसत शायद ही किसी धनपति ने निकाली हो। भूख .प्यास के बीच दुधमुंहे बच्चों के साथ गाँव वापसी के लिए दो.दो हजार किमी की अंतहीन पदयात्रा पर निकल पड़े लोगों के पांव में पड़े छाले देखें तो कलेजा मुंह को आता हैए लेकिन इनके दम पर गुलजार घरों के मालिकों का इन्हें मदद देने के नाम पर वही घिसापिटा तर्क थाए सरकार दे तो रही हैए भर.भर के अब और क्या चाहिएघ् जाहिर है गरीबए अमीर और आम आदमी के दरमियान की खाई बहुत चौड़ी हो गई है उसे लांघ कर जरूरतमंदों तक पहुंचना अब इंसानियत के लिए भी असंभव न सही नामुमकिन होता जा रहा है। दैहिक और मानसिक पीड़ा से थके.थकाए भुखमरी के शिकार होकर चकाचौंध शहरों से गुमसुम गांवों के घरों को लौटते लाखों बेकस मजदूर और उनके परिजन क्या दोबारा उस समाज पर भरोसा कर पाएंगेघ् जो सोशलमीडिया पर पकवानों की रेसिपी डालकर अपने भरे पेट होने की लजीज कहानियां सार्वजनिक रूप से बयान करने में लगा है।