शिव प्रिय अफसर पी.नरहरि और निशांत बरवड़े में जंग

तीसरे खास अफसर के निर्देश का पालन करने इंदौर कलेक्टर ने ली हाईकोर्ट की आड़

तोड़ डाले नियम कानून 

खबरनेशन / Khabarnation

कीर्ति राणा (लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
 

सीएम सचिवालय में चल रही अफसरों के बीच जंग में जनसंपर्क आयुक्त पी.नरहरि और इंदौर कलेक्टर निशांत बरवड़े के बीच झगड़े को भड़काने शिव के एक खास अफसर शह दे रहे हैं। गौरतलब हैं कि जनसंपर्क आयुक्त पी.नरहरि पूर्व में इंदौर के कलेक्टर रह चुके हैं और राजनीतिक एवं प्रशासनिक हलकों में यह माना जाता हैं कि इंदौर पदस्थ रहने वाला अफसर मुख्यमंत्री की गुडलिस्ट में शामिल रहता हैं। 

हाईकोर्ट की इंदौर खंडपीठ को भवन विस्तार के लिए जमीन चाहिए। संभव यह भी नहीं कि हाईकोर्ट को विस्तार के लिए जमीन राऊ, मांगल्या में दी जाए और वह मान जाए। हायकोर्ट भवन के पास ही जमीन ज़रूरी है। विधि जगत की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए राज्य सरकार का नतमस्तक होना सामान्य बात है। सरकार की मंशा को इशारे में समझ जाए तभी तो इंदौर का कलेक्टर। 
 

कलेक्टर होने का क्या मतलब होता है, यह निशांत बरबड़े के फ़ौरी एक्शन से स्थानीय जनसंपर्क विभाग को तो समझ आ गया है। जनसंपर्क आयुक्त कार्यालय को भी समझ आ ही जाएगा। अभी जो सीपीआर हैं वे पी नरहरि इंदौर के कलेक्टर भी रहे हैं लेकिन अब वरबड़े कलेक्टर हैं। जनसंपर्क विभाग का आरएनटी मार्ग पर केंद्रीय अहिल्या लायब्रेरी के पास 63 हज़ार वर्गफीट में फैला जो तीन मंज़िला भवन है वह जगह इंदौर हाईकोर्ट को पसंद आ गई है। शासन की हाँ होते ही इंदौर कलेक्टर ने जनसंपर्क विभाग के स्थानीय अधिकारियों को बुलाकर तुरंत भवन ख़ाली करने के आदेश जारी कर दिए। इन लोगों ने सीपीआर पी नरहरि को सारी स्थिति बताई। उम्मीद कर रखी थी कि वो कहेंगे तो भवन बच जाएगा, यहाँ वहाँ भटकना नहीं पड़ेगा। 
 

सीपीआर नरहरि ने इंदौर कलेक्टर वरबड़े को पत्र लिखा कि 63 हज़ार वर्गफुट जगह के बदले में भवन के लिए पर्याप्त भूमि/कमरे उपलब्ध कराए जाएँ साथ ही क़रीब 23 साल पहले बने इस भवन की लागत राशि 34 लाख और बाउंड्रीवॉल के एक लाख, कुल 35 लाख रु दिए जाएँ। मेल पर सेंड किया यह पत्र तीनचार दिन तो जिला प्रशासन को मिला ही नहीं। इस बीच कलेक्टर के निर्देश पर तहसीलदार पल्लवी पुराणिक ने जनसंपर्क विभाग कार्यालय की जमीन की नप्ती कर इस भूमि का क़ब्ज़ा हाईकोर्ट को सौंप भी दिया। जबकि शासकीय नियमों के तहत किसी भी विभाग की जमीन का क़ब्ज़ा किसी अन्य को सौंपने में शासन और संबंधित विभाग की अनुमति अनिवार्य होती है। 
 

आज की स्थिति में देखा जाए तो दस्तावेजों में जो जमीन कोर्ट को सौंपी जा चुकी है वहाँ चल रहा जनसंपर्क कार्यालय अतिक्रमकर्ता/अवैध क़ब्ज़ाधारी की श्रेणी में आ गया है। प्रशासन की कार्रवाई ठीक वैसी ही है जैसे शहर हित की किसी योजना/स्मार्ट सिटी आदि के लिये नगर निगम निजी जमीन/मकान क़ब्ज़े में ले ले और बदले में क्षतिपूर्ति राशि, जमीन आदि भी ना दे। 

रोज़ मिल रही है चेतावनी भवन ख़ाली करो

सीपीआर ने इंदौर कलेक्टर को जो पत्र लिखा है, उस दिशा में तो जिला प्रशासन ने कोई ठोस पहल अब तक नहीं की है। इसके विपरीत जिला प्रशासन द्वारा जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों को रोज़ भवन ख़ाली करने की चेतावनी मिल रही है। 
 

स्थानीय अधिकारियों की हालत ‘दो पाटन के बीच में साबुत बचो न कोय’ जैसी हो गई है। कलेक्टर से न खुल कर कुछ कह सकते और न ही सीपीआर को बता सकते कि आप के यहाँ से भेजे पत्र को बस रद्दी की टोकरी के हवाले ही नहीं किया है। ऐसा नहीं कि जिला प्रशासन इस भवन के बदले विभाग को जमीन नहीं देना चाहता। पहली प्राथमिकता न्याय जगत को खुश करना है इसलिए पहले जनसंपर्क विभाग के सामने ‘गागर में सागर’ समाने जैसा प्रस्ताव रखा कि एमटीएच कंपाउंड में लेबर कोर्ट के दो कमरों में शिफ़्ट हो जाएँ, जबकि अभी तीन मंज़िला भवन में ऑफिस संचालित हो रहा है। 
 

इस प्रस्ताव को जगह कम होने का हवाला देकर विभाग ने असमर्थता व्यक्त कर दी। अब यह प्रस्ताव मिला है कि महू नाका स्थित जिला शिक्षाअधिकारी कार्यालय के पास तीन हॉल-कमरे तीन महीने के लिए ले लो। तीन महीने बाद कहाँ जाएँ यह तय नहीं। गौर करने वाली बात यह भी कि सारे प्रस्ताव मौखिक मिल रहे हैं, स्थानीय प्रशासन कुछ लिख कर देने को भी तैयार नहीं है।यह तो तय है कि केंद्रीय अहिल्या लाइब्रेरी की काफ़ी कुछ जमीन भी हायकोर्ट भवन के विस्तार में जाएगी ही। प्रशासन की मजबूरी है सरकार की सद् इच्छा का तत्परता से पालन कराना। उसे भी पता है कि कोर्ट से बढ़ा कोई नहीं, इसीलिए इंदौर के वर्तमान कलेक्टर के लिए संभव हुआ है पूर्व कलेक्टर-सीपीआर और उनसे वरिष्ठ आयएएस के लिखे पत्र की शर्तों को नज़रअंदाज करना। 

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