मेरा अस्तित्व कहाँ
मेरा अस्तित्व कहाँ
मैं छू आई चांद को
फिर भी चलती-जलती ज्वाला पर।
मैंने उठाया चाहे धरा के भार को
फिर भी जकड़ी रही
रीति-रिवाजों की बेड़ियों पर।।
मैं नीर से भरी हूँ,
जीवन भर देती शीतलता
सदा मेरे अस्तित्व को खंडित कर क्यों
फेंक देते कोख से झाड़ियों तक
जहर ये तेरे सीने में पलता
मुझमें वह शक्ति है
चाहूँ तो ला दूँ चरणों में चांद को
प्यार आदर से झुक जाती
दर-घर-हर कदमों पर
मैं भी एक इंसान हूँ
क्यों भूल जाते हो मुझको
मासूमों पर कष्ट पहुँचाकर कैसे
गर्व कर सकते हो इंसानियत पर
मैं क्या कहूँ ऐसे हैवानियत को
जो शर्मिंदा कर देते हम सबको।।
*मीरा का कृष्ण से सच्चा प्रेम*
मीरा का कृष्ण से प्रेम था सच्चा
दिल से माना मीरा ने कृष्ण से रिश्ता पक्का
मीरा के प्रेम के आगे,हर प्रेम है कच्चा
चित्तौड़गढ़ के साथ ही दुनिया का जाने बच्चा-बच्चा।।
मीरा ने जो जाना प्रेम का रिश्ता
बनके जोगन कृष्ण-कृष्ण जपे राजा चाहे उससे खींचता
रानी जंगल-जंगल घूमे पैरों से खून है रिसता
सांसारिक मोह माया से मीराबाई का न वास्ता।।
मीराबाई का प्रेम था सच्चा
विष का प्याला बन गया अमृत प्याला
प्रेम का अद्भुत है खेल निराला
देह सहित लेने आए कृष्ण लला।।
सरिता बघेला "अनामिका"