नेताजी, आपके जहर उगलते भाषणों से तो झूठे वादे अच्छे हैं!

यूं ही Dec 12, 2017

- पंकज 

यूं ही ख्याल आया कि देश में जब चुनाव नहीं होते हैं तब हमारे नेतागण क्या करते हैं? अब यह न कहिएगा कि वे विकास की योजनाएं बनाते है, उनके क्रियान्वयन की तैयारी करते हैं। ये सब करने के लिए लंबी-चौड़ी सशक्त ब्यूरोक्रेसी है न। हमारी ब्यूरोक्रेसी का मकड़जाल इतना तगड़ा है कि ऐरावत हाथी सा मजबूत पॉलिटिकल तंत्र भी उसे छिन्न-भिन्न नहीं कर सकता। अपने मूल सवाल पर आता हूं। यह इसलिए पूछा कि जितनी तैयारी, आक्रामकता, व्यस्तता, देश की चिंता, विकास की फिक्र, मंदिरों की दौड़, सभाओं की रेलमपेल चुनावों के समय होती है, उतनी भागमभाग आम दिनों में तो नहीं होती। जब ये नहीं होती तब नेता अपने जहर उगलते शब्दों  को कहां, किस तरकश में रखते हैं? 

अभी एक फेसबुक अपडेट पर निगाह पड़ी। बताया गया कि गुजरात चुनाव के पहले बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान पाकिस्तान चुनावी सभाओं में भाषणों का केन्द्र बना था। जानकारी अच्छी है। गौर करेंगे तो पाएंगे कि आरक्षण का मुद्दा भी तो चुनाव-चुनाव ही सिर उठाता है। और मंदिर मामला भी। ऐसे कितने ही और मामले गिनाए जा सकते हैं। ये तो सार्वभौमिक मामले हैं, हर सीट पर और हर राज्य में मुद्दे अलग हैं। इन मुद्दों को चुनावी मुद्दे कहा जाता है। चुनावी इ‍सलिए भी राजनीतिक दलों ने इनका चयन चुनावी दंगल के लिए किया है। सरकार किसी दल की हो, ये मुद्दे सरकारों के मुद्दे कभी नहीं बन पाते।

याद कीजिए, कितनी ही सरकारें आईं और गईं। मुद्दे वहीं रहे। कुछ मुद्दे एक-दो चुनाव में गायब भी रहे तो फैशन में लौट आई बेलबॉटम पेंट की तरह ये फिर लौट आए। सरकार आती हैं एक मुखौटा लगा कर। काम करने वाले हाथ तो वहीं हैं। जो ‘अ’ की सरकार चला रहे थे, जनमत बदला तो वे ‘ब’ की सरकार चलाने लगे। जनता हाथ मलती रहती है। पांच साल बाद आने वाले चुनावों में सबक सीखाने के मंसूबे बुनती रहती है और जब तक चुनाव आते हैं जनता के हाथ में नई चाशनी में मुद्दों का पुराना लड्डु ही होता है। 

फिर अपना सवाल दोहराता हूं, ये नेतागण जब चुनाव नहीं लड़ रहे होते हैं तब क्या  करते हैं? ये सवाल बार-बार इसलिए पूछ रहा हूं कि मुझे यह चिंता परेशान किए हुए हैं कि चुनाव न होने के खाली समय में इन नेताओं की जहर बुझी वाणी के तीर किसे हताहत करते हैं? शब्दोंं से अपने प्रतिपक्ष को चोटिल करते ये नेता ‘बूमरेंग’ की तरह क्या खाली वक्त में अपने ही खेमे में तोड़फोड़ मचाते हैं या उस वक्त में अपनी जबान की धार को और जहर से भिगो रहे होते हैं?

कभी-कभी लगता है कि आग लगाते, आपस में ईर्ष्या करवाते, कलह और आपसी हिंसा पैदा करते, जातियों की खाई को गहरी करते नेताओं के बयानों से अच्छे  झूठे वादे हैं, जो भरम में रखते हैं, मगर हमें लड़वाते तो नहीं। नेताजी आप तो झूठे वादे ही कीजिए। रंगों को मत बांटिए। धर्म स्थलों पर पहरे कड़े मत कीजिए। मनों में कलह मत बोइए। रेखाएं गाढ़ी मत कीजिए। चुनाव-चुनाव खेलते हुए हमें धोखा मत दीजिए। सुन रहे हैं न आप, नेताजी आपके जहर बुझे शब्दोंं से कहीं अच्छे तो झूठे वादे हैं।

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