देश मे दंगो का इतिहास और धधकता खरगोन

 

 

खबर नेशन / Khabar Nation

पेशे से कम्प्यूटर इंजीनियर राजकुमार जैन इन दिनों धारदार सामाजिक विश्लेषण कर रहे हैं

 

मस्जिद की अजां हो कि शिवाले का गजर हो 

अपनी तो ये हसरत है कि किसी तरह सहर हो 

 

 

1947 मे स्वतन्त्रता मिलने के बाद से ही देश में दंगों का दागदार अतीत रहा है। इतिहास पर अगर संक्षिप्त नजर डालें तो 1964 में राउरकेला में दंगा हुआ, जबकि 1967 में रांची में दंगा और 1969 में अहमदाबाद में दंगा हुआ था। दंगों की कड़ी यहीं नहीं रुकती, बल्कि बढ़ती जाती है। 1970 में भिवंडी दंगा, 1979 में जमशेदपुर दंगा, 1980 में मुरादाबाद दंगा, 1983 में असम के नेल्ली में दंगा हुआ। सांप्रदायिक नरसंहार का एक सबसे कुरूप चेहरा दिल्ली में 1984 का सिख विरोधी दंगा है, गुजरात में 2002 से पहले भी दो या तीन बड़े दंगे हो चुके थे।

 

भारत में सांप्रदायिक दंगों की जड़ें बहुत गहरी हैं लेकिन समस्या इन्हें सुविधाजनक दृष्टि से देखने पर होती है। स्वतंत्र भारत की राजनीतिक परिस्थितियां कुछ ऐसी बन गयी हैं कि हम दंगों का इतिहास गढ़ते भी अपनी सुविधानुसार हैं और उसे पढ़ते भी अपनी सुविधानुसार ही हैं। इतिहास के बारे में अनोखी बात यह है कि यह कभी शुरू से शुरू नही होता हम जहां से इसे पढ़ना शुरू करते हैं, उससे पहले का भी कुछ न कुछ तो इतिहास होता ही है, जो उस इतिहास को बनाने के लिए जिम्मेदार होता है, जिसे हम अभी पढ़ रहे होते हैं। यह भी अपना-अपना चयन है कि हम दंगों का इतिहास कहां से पढ़ना चाहते हैं। आप स्वतंत्र हैं कि आजाद भारत के दंगों का इतिहास गुजरात- 2002 से पढ़ना शुरू करें या 1992 के अयोध्या प्रकरण से या आप चाहें तो 1989, 1984, 1964 या फिर 1947 से भी शुरू कर सकते हैं। 

 

जातिवाद की राजनीति ने हिंदू मतदाताओं को जाति की दीवारों में बांटने का काम किया, और तुष्टिकरण की राजनीति को कुछ दलों ने मुस्लिम वोटबैंक को हथियाने का साधन बनाया। वर्ष 2014 में देश की राजनीति में हुए परिवर्तन ने जातिवाद की दीवार को दरका कर जातिवादी राजनीति को कमजोर किया। जैसे जैसे जातिवादी राजनीति कमजोर हुई, वैसे वैसे तुष्टिकरण का हथियार असरहीन होता गया। अत: तुष्टिकरण की राजनीति के भरोसे सत्ता का सपना देखने वाले अस्थिरता और फसाद को हवा देने में सक्रिय हो रहे हैं। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में दंगों के इस इतिहास पर जिस बेहायाई से पर्दा डालकर धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता की राजनीति करने का प्रयास किया जा रहा है, वह इस बात की तस्दीक करता है कि भारतीय राजनीती इस कुंद पड़ चुके राजनीतिक हथियार को फिर से पैना करने के हथकंडे अपना रही है। दंगों का राजनीति से संबंध इतना गहरा है कि खुद को पारंपरिक राजनीति से इतर बताने वाले साफ छवि वाले कुछ गिने चुने नेताओं को भी इसी दलदल में कूदना ही पड़ता है।

 

आजकल धार्मिक त्यौहार बड़े पैमाने पर आयोजित किये जा रहे हैं और दूसरे धर्मों के लोगों को जानबूझकर भड़काया जा रहा है। ये कोई अलग मुद्दा नहीं है। खरगोन की हिंसा की रौशनी में इस पर भी विचार किया जाना चाहिए। खरगोन में हिंसा के कारण को जानने से पहले खरगोन के चरित्र को जान लेना चाहिए। । खरगोन जिला आदिवासी बाहुल्य इलाका है इसके बावजूद खरगोन देश के तेजी से विकसित होने वाले कुछ गिने चुने शहरों में शामिल है और स्वच्छता सर्वेक्षण में 10 वां स्थान हासिल कर चुका है। कपास और मिर्च पैदा करने वाले दो लाख से कुछ अधिक की आबादी वाले खरगोन में सातों जातियों के लोग रहते हैं, शहर में आपसी टकराव का पुराना इतिहास भी है।  बीते दो दशकों में खरगोन में जनसंख्या का आधिकारिक आंकड़ा तो सामने नहीं आया है लेकिन जानकारों के मुताबिक समुदायों की आबादी में बड़ा फेरबदल देखा जा रहा है। एक समुदाय विशेष की बढ़ती आबादी, गिरता शिक्षा का स्तर और बढ़ती बेरोजगारी भी इस सांप्रदायिक हिंसा के पीछे कहीं ना कहीं जिम्मेदार है। जिस इलाके में कोई एक समुदाय ताकतवर हो तो दूसरे तबके पर भी एकजुट होने का दबाव बढ़ जाता है। जातीय तनाव के बावजूद इन समुदायों के बीच शायद ही कभी दंगे होते हैं। लेकिन आम तौर पर शांत रहने वाले खरगोन में आखिरकार एक ही तरीके से होने वाले सांप्रदायिक दंगे की आग क्यों धधकती है। क्या भीतर ही भीतर एक संप्रदाय विशेष के लोगों के दिमाग में इतना जहर घुला हुआ है या फिर यहां के लोगों को कोई छुपी हुई कट्टरपंथी ताकतें पट्टी पढ़ाकर, बरगला कर भड़काती हैं। 10 अप्रैल को जिस तरह राम नवमी के जुलूस पर कई इलाकों में एक साथ पत्थर बरसाए गए, उसे सोची समझी साजिश इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि शहर के कई हिस्सों में एक साथ तयशुदा वक्त पर पथराव शुरू हुआ था। अहम बात यह भी है कि जिन पत्थरों को बरसाया गया वो पत्थर नदी से लाए गए एक ही तरह के थे। साढ़े छह बरस पहले 2015 में दंगों की आग में शहर जिस तरह से झुलसा था। ठीक उसी तरह पूर्व नियोजित तरीके से हिंसा को इस बार भी फैलाया गया। पुलिस ने उस वक्त भी 50 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया था। हालत पर काबू पाने के लिए उस वक्त भी कर्फ्यू लगाया गया था। साथ ही देखते ही गोली मारने तक के आदेश भी दिए गए थे। 

 

प्रदेश की सरकार का अपराध पर नियंत्रणहो या न हो, लेकिन इस बहाने राजनीति खूब हो रही,  पीड़ितों को मदद के वादे या द्ंगाईयो पर कड़ी सजा की चेतावनी की आड़ में जो कुछ हो रहा है, वह विशुद्ध रूप से राजनीति ही है। राजनीतिक दलों के नेता अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं। खरगोन में हुई हिंसा में पथराव भी हुआ और गोलियां भी चलीं, पुलिस अधीक्षक के पैर में भी गोली लगी लेकिन खरगोन की हिंसा में प्रशासनिक नाकामी पर किसी की नजर नहीं गयी। पुलिस और प्रशासन को जो कार्रवाई हिंसा से पहले करना थी वो अब की जा रही है और भावनाओ के अतिरेक में में की जा रही है। अब तक 84 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है, दर्जनों मकानों पर बुलडोजर चला दिए गये है। सवाल यह है कि क्या ये हिंसा के बाद की जाने वाली कार्रवाई क्या भविष्य में दंगे रोकने में कामयाब होगी। सरकार को ठंडे दिमाग से उन विन्दुओं को चिन्हित करना चाहिए जिनकी वजह से हिंसा हुई। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण वारदातों की पुनरावृर्ति न हो इसके लिए पहले पुलिस और प्रशासन में कसावट लाने के उपाय किए जाने चाहिए। और यू भी समझना चाहिए कि बदले की भावना से की गई कार्रवाई से दुनिया में कहीं भी अमन-चैन कायम नहीं हुआ है। दंगे निश्चित ही समाज केलिए नासूर हैं। दंगाइयों को कड़ी से कड़ी सजा मिलना ही चाहिए चाहे वे भड़काऊ भाषण देने वाले पंडित हों या कोई खान। कोई भी समझदार आदमी दंगाइयों के पक्ष में खड़ा नहीं हो सकता। बुलडोजर भी सिर्फ निर्जीव ढांचे गिरा सकते हैं,नफरत की दीवारें नही। नफरत की दीवारें हम इंसानों को ही गिराना पड़ेंगी। 

 

इसे कानून की लचरता कहें या मजबूत कानून न बनाने की लाचारी, धार्मिक विविधता वाले हिंदुस्तान में धार्मिक हिंसा, हमेशा से राजनीती के अखाड़े की मुलायम मिट्टी ही साबित होती रही है जिसे सब अपने अपने तरीके से मथ कर चले जाते है। इस अखाड़े में राजनीती की इस नूराकुश्ती का हर किसी को अपने तरीके से फायदा मिला। मगर क्या तो बहुसंख्यक और क्या अल्पसंख्यक हर जाति हर धर्म के लोग न्याय के लिए दर दर भटक रहे हैं। मौजूदा व्यवस्था में न्याय कानून से मिलता है और कानून बनाने का काम संसद में विरराजमान माननीयों का का है।  कुल मिलाकर कानून की गेंद फिर उसी राजनीतिक अखाड़े में आ जाती है जिसके इस्तेमाल का मकसद दंगा पीडि़तों को न्याय दिलाना नहीं बल्कि दंगाई राजनीति की फसल को बारहमासी बनाना है। 

 

सरकारों को आज अपने देश में पनप रही जेहादी मानसिकता को समाप्त करने पर ध्यान देना चाहिए। जितनी जल्दी हो सके यह बात समझ जानी चाहिए की जनता ने वोट भारत में अपनी सुरक्षा के लिए दिया है।

 

मस्जिद की अजां हो कि शिवाले का गजर हो 

अपनी तो ये हसरत है कि किसी तरह सहर हो 

 

विचार संकलन : राजकुमार जैन

Share:


Related Articles


Leave a Comment