हिंदी का भाव और तुगलकाबाद की नाव

खबर नेशन / Khabar Nation

भूपेन्द्र गुप्ता

मध्यप्रदेश में महात्मा गांधी जब सबसे पहले 1918 में इंदौर हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के लिए आए थे तब उन्होंने घोषणा की थी कि देश की राष्ट्रभाषा बनने की शक्ति केवल हिंदी में है किंतु इसे लागू करने के लिए हमें देवनागरी लिपि और देश की अन्य भाषाओं की लिपि में समानता खोजनी पड़ेगी। इसके लिए गांधी जी ने काका कालेलकर की अध्यक्षता में एक कमेटी भी बनाई थी जिसका सचिव उन्होंने अपने पुत्र देवदास को बनाया था ताकि भारत की विभिन्न भाषाओं और लिपि में समानता खोजी जा सके और हिंदी की देवनागरी लिपि को सर्वग्राही बनाने के लिए आसानी हो सके। मातृभाषा से प्रेम की यह यात्रा लगभग 104 साल पुरानी है।

मध्यप्रदेश में विश्व में पहली बार कुछ करने के काम का नशा तारी है और इसी उत्तेजना में जो प्रयोग हो रहे हैं उनमें से एक चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई हिंदी में करवाने का संकल्प भी है। भावनात्मक दृष्टि से यह बात उचित दिखाई पड़ती है किंतु व्यवहारिक रूप से यह एक आत्मघाती कदम है। मध्य प्रदेश में ये सारे प्रयोग लगभग 40 साल पुराने हैं किंतु इनमें सफलता ना मिल पाने के कारण बार-बार यह प्रयास छात्रों के लिए नुकसानदेह साबित होते रहे हैं ।यहां यह विचारणीय होगा कि 50 बरस पहले से यह प्रयोग मेडिकल कॉलेज के स्तर पर बार-बार हुए हैं। प्रोफेसर डॉक्टर के पी मेहरा जो कि गांधी मेडिकल कॉलेज में एनाटॉमी विषय के विभागाध्यक्ष थे उन्होंने इस पर बहुत काम किया था लेकिन जब वे कोशिश हार गए तो उन्होंने मेडिकल कॉलेज में ही हिंदी भाषायी छात्रों के लिए अंग्रेजी की कोचिंग की स्पेशल क्लास लगानी शुरू कीं। इन कक्षाओं को मोतीलाल विज्ञान महाविद्यालय के प्रोफेसर डॉक्टर लाल और डॉक्टर पारखी पढ़ाया करते थे। कांग्रेस की सरकार में हिंदी ग्रंथ अकादमी के माध्यम से कई विषयों पर काम शुरू किया गया कंप्यूटर साइंस के ऊपर कई पुस्तकों का हिंदी करण डॉक्टर संतोष चौबे ने किया किंतु वह भी प्रारंभिक शिक्षा से आगे नहीं बढ़ पाया। टेक्स्ट की किताबें प्रतिवर्ष नए विज्ञान, नई फार्मोकोलॉजी ,नए साल्ट्स की खोज, नई डायग्नोस्टिक एप्लीकेशन आदि के कारण निरंतर बदलती रहती हैं ।आधी अधूरी तैयारी से अगर ये कोर्स शुरू किए जाते हैं तो यह मध्य प्रदेश के छात्रों के लिए आत्मघाती कदम ही होगा।

पूर्व में अटल बिहारी बाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय द्वारा इंजीनियरिंग के कोर्स हिंदी माध्यम में शुरू किए गए थे किंतु अपेक्षित विकास ना हो पाने के कारण वह परवान नहीं चढ़ सके अंततः कोर्स बंद हो गए। जिन 8-10 छात्रों ने प्रवेश लिया था उनके कई वर्ष व्यर्थ हुए। राजनैतिक कारणों से एकेडमिक्स और करिकुलम में दखलअंदाजी भाव जगाने के लिए और वोट बैंक बनाने के लिए उत्तेजक लग सकती है किंतु आज की प्रतिस्पर्धी दुनिया में मध्यप्रदेश के बच्चों को निश्चित रूप से ऐसे प्रयोग पीछे की पंक्ति में खड़ा कर देंगे ।बहुत संभव है कि जैसा कई बरस पहले कई निजी नौकरियों में नोट लिखा रहता था कि मध्य प्रदेश के बच्चे आवेदन ना करें ।आज इस तरह के प्रयोग फिर से ऐसी परिस्थिति भी पैदा कर सकते हैं। किसी भी सरकार के जहन में पहला सवाल यह आना चाहिए कि जब प्रदेश में इंजीनियरिंग का कोर्स असफल हो चुका है 35 वर्ष से जो भाषागत प्रयोग हो रहे हैं वे सफल नहीं हो सके हैं। तब संपूर्ण कोर्स तैयार हुए बिना दो तीन किताबों के आधार पर ऐसी पढ़ाई शुरू करना मजाक ही कहा जाएगा ।ऐसा बताया जा रहा है कि फार्मोकोलॉजी, बायो टेक्नोलॉजी एवं एनाटॉमी में ही पुस्तकें अब तक तैयार की जा सकी हैं ।तो बाकी विषयों का क्या होगा? क्या सरकार ने यह विचार किया है कि ऐसा कोर्स करने के बाद प्रदेश के जो बच्चे दूसरे राज्यों से पीजी करना चाहेंगे उनके साथ क्या व्यवहार होगा? वर्तमान में जिन छात्रों ने नीट की परीक्षा दी है वे असमंजस में हैं कि जिस कॉलेज में उन्होंने चॉइस फिलिंग की है अगर वहां हिंदी में पढ़ाई की गई तो उन्हें अपनी पसंद बदलने के लिए मजबूर होना पड़ेगा ।उनका विचार है कि सरकार को नीट परीक्षा के पहले ही यह बात घोषित करनी चाहिए थी कि अमुक-अमुक कॉलेजों में हिंदी में शिक्षा दी जाएगी। तो छात्र अन्य कालेजों को वरीयता देते किंतु यह उन विद्यार्थियों को जो किसी पसंद के कॉलेज से एमबीबीएस ही करना चाहते हैं किंतु अंग्रेजी माध्यम से, ऐसे छात्रों को मजबूरन अपनी पसंद का कालेज बदलना पड़ सकता है।यह उनकी रैंकिंग और मेरिट के साथ अन्याय ही होगा।

पूरे विश्व में 'श्री हरि'के साथ दवाई हिंदी में लिखने का सरकारी सुझाव मजाक का विषय बना हुआ है।डाक्टर्स परेशान हैं कि चमड़े के सिक्के चलाने के पहले सभी डिनामिनेशन के सिक्के तैयार किये बिना ही सब कुछ बदला जा रहा है।सभी असहाय तो जरूर हैं पर क्या कर सकते हैं।ट्रेन तो तुगलकाबाद की तरफ चल पड़ी है।

 

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