पीले सोने के बेल्ट मुरैना - सुमावली के विधानसभा उपचुनाव जाति में छुपी जीत


मुरैना विधानसभा उपचुनाव :
गुर्जर बनाम अन्य के बीच फंसी है मुरैना की चुनावी कहानी
 रुस्तम से रुसवाई पर रघुराज से भी प्रीत की मुश्किल

सुमावली : एदल की बादशाहत को अजब चुनौती की तैयारी..!

मध्यप्रदेश की 24 सीटों पर विधानसभा उपचुनाव होना है । खबर नेशन/Khabar Nation के पाठकों के लिए चंबल ग्वालियर की 16 विधानसभा सीटों की राजनीतिक तासीर बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर अजय खेमरिया...... 


(मुरैना):पीले सोने (सरसों)के क्षेत्र मुरैना को आप मप्र में बसपा की उर्वरा भूमि भी कह सकते है।1990 से यहां हार जीत का निर्धारण बसपा के प्रदर्शन पर ही निर्भर  रहा है।सुमावली में जहां गुर्जर बनाम सिकरवार का ट्रेंड स्थापित हो गया है वहीं जिला मुख्यालय की यह सीट भी गुर्जर बनाम सवर्ण, दलित धुर्वीकरण का केंद्र बन गई है।ऐतिहासिक रूप से यह क्षेत्र जनसंघ बीजेपी का गढ़ है लेकिन 90 के दशक से यहां बसपा ने दलित बिरादरी के जरिये अपनी पैठ जबरदस्त ढंग से निर्मित की।यूपी में मायावती के ब्राह्मण कार्ड का प्रभाव यहां भी फलीभूत हो चुका है 2008 में बसपा के टिकट पर परशुराम मुदगल यहां से विद्यायक चुने गए थे।2013 में भी बसपा के  ब्राह्मण कैंडिडेट रामप्रकाश राजौरिया से बीजेपी के रुस्तम सिंह हार के किनारे पर आकर बमुश्किल 1704 वोट से जीत पाए थे। खास गौर करने वाली बात यह है कि रुस्तम सिंह को मुरैना शहर के लगभग सभी बूथों पर करारी हार झेलनी पड़ी थी। तब के कांग्रेस कैंडिडेट दिनेश गुर्जर की वोटिंग पूर्व समर्पण की रणनीतिक जातीय गोलबंदी के चलते ही रुस्तम सिंह जीत पाए थे।इस सीट पर ब्राह्मण,वैश्य,गुर्जर,दलित ,ठाकुरकमोबेश बराबर की संख्यात्मक ताकत रखने वाली बिरादरी हैं।गुर्जर जाति ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में है।दलित और गुर्जर का सामाजिक साम्य यहां कभी नही रहता है इसीलिए बसपा के नॉन दलित उम्मीदवार हर बार मुकाबले में आते है या बीजेपी कांग्रेस की जीत हार तय करते रहे है।
वैसे यहां जाति का तत्व इस कदर हावी है कि ब्राह्मण, ठाकुर,वैश्य भी आपस में किसी भी मुद्दे पर समवेत नही रहते है।
मुरैना में शहरी और ग्रामीण वोटर लगभग बराबर है लेकिन वोटिंग बिहेवियर में कोई बड़ा अंतर नही है जैसा कि अन्य क्षेत्रों में देखा जाता है।
उपचुनाव की बात करें तो यहां से बीजेपी के संभावित उम्मीदवार रघुराज कंषाना(गुर्जर) की छवि परम्परागत गुर्जर नेताओं के उलट एक भले व्यापारी नेता की है और उनकी 2018 की जीत में यह भी एक फैक्टर था।
लेकिन सबसे बड़ा फैक्टर यहां कांग्रेस की जीत का रुस्तम सिंह भी थे।यह तथ्य है कि बीजेपी यहां गलत प्रत्याशी चयन के कारण ही पराजित हुई थी।डीआईजी से सीधे विधायक बनने वाले  रुस्तम सिंह कभी भी  एक नेता के रूप में बीजेपी में स्वीकार्यता हांसिल नही कर सके।वे चार बार यहां से लड़े और दो बार मंत्री रहते परास्त हुए।2003 में उमा भारती की आंधी को छोड़कर शेष तीनों चुनावों में रुस्तम सिंह कभी भी बीजेपी कैडर और परम्परागत समर्थक वर्ग की स्वीकार्यता प्राप्त नही कर सके।पहला चुनाव वह उमा भारती की हवा और डीआईजी की कुर्सी त्याग पर जीते और 2013 में वह कांग्रेस प्रत्याशी की रणनीतिक युगलबंदी के चलते जीत पाए।जाहिर है मुरैना में बीजेपी अगर शिकस्त खा रही है तो रुस्तम और संगठन का खुला अलगाव इसकी वजह है।ब्राह्मण,वैश्य ठाकुर तीन बड़ी जातियां यहां रुस्तम सिंह के खुले विरोध में है इसी का फायदा कांग्रेस के सॉफ्ट चेहरे रघुराज कंषाना को 2018 में मिला।
उपचुनाव में रघुराज के सामने कांग्रेस अगर किसी गुर्जर को उम्मीदवार बनाती है तो तीसरी ताकत को कोई भी नजरअंदाज नही कर सकेगा यह बसपा भी हो सकती है या अन्य कोई नॉन गुर्जर निर्दलीय भी।
कांग्रेस के पास जिलाध्यक्ष राकेश मावई,रिंकू प्रबल मावई दो सशक्त दावेदार है।एक नाम राकेश रुस्तम सिंह का भी यहां चर्चाओं में है।संभव है रुस्तम सिंह के बेटे राकेश अपने पिता की सीट से यहां चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस का दामन थाम लें।मुरैना सीट पर गुर्जर जाति के अंदरूनी गणित को भी समझना होगा यहां मावई,कंषाना, हर्षाना, राणा,घुरैया,उपनाम वाले  गुर्जरों के गांवों में बंटी यह जाति आपस में भी गहरे मतभेदों में फंसी रहती है।रघुराज कंषाना मूलतः सुमावली के है और वे एदल सिंह की तरह जातिगत नेता नही है।रुस्तम सिंह की खिलाफत ,2 अप्रेल के स्वर्ण दलित संघर्ष,कर्जमाफी और माई के लाल जैसे फैक्टर रघुराज की जीत के आधार थे। उपचुनाव में अगर राकेश या रिंकू मावई उम्मीदवार होंगे तो बीजेपी के रघुराज का जातीय गणित बुरी तरह फैल हो जाएगा।तब केवल बीजेपी के परम्परागत वोट उन्हें कितना मुकाबले में लायेंगे यह आसानी से समझा जा सकता है।बसपा अगर रामप्रकाश राजौरिया, परशराम मुदगल या किसी वैश्य पर इस स्थिति में दाव लगा दे तो मुकाबला बसपा के इर्दगिर्द ही सिमट जाएगा।इस सीट पर करीब 25 हजार वैश्य वोटर है। सेवाराम गुप्ता यहां से बीजेपी के टिकट पर 1990 और 1998 में एमएलए रह चुके है।वर्तमान में के एस ऑयल के मालिक रमेश गर्ग इस बड़े वैश्य वर्ग के निर्विवाद नेता है उनकी भूमिका हर चुनाव में खासा महत्व रखती है।फिलहाल वे किसकी तरफ है यह कहा नही जा सकता है।केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर,मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया तीनों से रमेश गर्ग के नजदीकी रिश्ते है।जाहिर है रमेश गर्ग के समर्थन के बिना यहां रघुराज कंषाना की स्थिति सुधरेगी नही।करीब 15 हजार किरार 10 हजार राठौर,15 हजार ठाकुर और भोई,नाई,धोबी,कोली,कुशवाहा जैसी जातियों के समर्थन पर ही बीजेपी की संभावना यहां बनेंगी।लेकिन इसके लिए तीनों बड़े नेताओं को अपना सब कुछ यहां दाव पर लगाना होगा।
मुरैना का वोटर बहुत ही वोकल माना जाता है और उसकी राजनीतिक समझ को समझना कोई कठिन नही है क्योंकि यहां जाति का आग्रह अंततः सब पर भारी पड़ता है।बीजेपी का प्रभाव यहां सामान्य रूप से स्वयंसिद्ध है क्योंकि 1991 से यहां लगातार बीजेपी का सांसद ही निर्वाचित होता आया है।यह भी समानन्तर रूप से तथ्य है कि लोकसभा और विधानसभा में यह ट्रेंड बिल्कुल बदलकर जातियों पर आ टिकता है।सेवाराम गुप्ता तक ब्राह्मण,ठाकुर ओबीसी और कुछ गुर्जर बीजेपी के साथ जाते रहे है लेकिन रुस्तम सिंह के आने के बाद गुर्जरों के विरुद्ध बीजेपी की परम्परागत जातियों में भी अलगाव नजर आने लगा है।इस उपचुनाव में अगर बीजेपी कांग्रेस दोनों ने गुर्जर उम्मीदवार उतारे तो यह स्पष्ट है कि मुरैना में लड़ाई त्रिकोणीय ही होने जा रही है।
बसपा के प्रभाव को समझने के लिए हम इन आंकड़ों पर नजर डालते है:1990 में 22.42%,1993 में 20.68%1998 में19.06%2003 में 20.64%2008में26%,2013में 41%2018में 20%वोट बसपा को मिलें है।
बसपा का कोर वोटर जाटव यहां संख्या में लगभग 30 हजार से अधिक है जो ब्राह्मण उम्मीदवार के साथ हाथी निशान पर 2003 से लगातार साथ मे खड़ा रहा है।यानी गुर्जर उम्मीदवार के साथ यह जाने के लिए तैयार नही है।हालांकि 2018 में रघुराज कंषाना को करीब 20 फीसदी वोट पहली बार मिल गया था क्योंकि उनकी छवि दबंग गुर्जर या पुराने नेता की नही थी साथ ही बसपा टिकट पर भी रामप्रकाश राजोरिया और बलबीर डंडोतिया में विवाद की स्थिति बन गई थी।
मुरैना के ब्राह्मण वर्ग में बीजेपी के प्रति फिलहाल नाराजगी का भाव है क्योंकि जिले की 06 में से किसी सीट पर दो चुनावों से ब्राह्मणों को मौका नही दिया गया है।हालांकि इस बार उपचुनाव में दिमनी से गिर्राज डंडोतिया मैदान में होंगे लेकिन यह कितना इस वर्ग को संतुष्ट कर पायेगा फिलहाल नही कहा जा सकता है।
कुल मिलाकर मौजूदा दौर में मुरैना पर मामला बेहद पेचीदा है यह बीजेपी के तीन दिग्गज नरेन्द्र सिंह तोमर,शिवराज सिंह और सिंधिया के प्रभाव की भी अग्निपरीक्षा होगा।
बीजेपी अगर अपने कैडर को संतुष्ट कर पाई और सिंधिया समर्थक खुद को ईमानदारी से नई पार्टी में समायोजित कर पाए तभी यहाँ का नतीजा आशानुरूप आ सकता है।
बीजेपी के लिए एक अच्छी बात यह है कि प्रदेशाध्यक्ष बीड़ी शर्मा भी मुरैना के ही है इसलिए वह ब्राह्मणों को अपनी ओर लामबंद कर सकती है।कांग्रेस के सामने भी प्रत्याशी चयन का संकट भी कम नही है।
अलर्ट: डॉ राजेश माहेश्वरी मुरैना के ख्यातिनाम सर्जन है वे भी यहां से  कांग्रेस टिकट के प्रबलतम दावेदार है।अगर कांग्रेस अपने गुर्जर नेताओं को दरकिनार कर उन्हें उतारने की हिम्मत दिखाएगी तो यहां 2013 का दृश्य निर्मित हो सकता है जब मुरैना शहर के 160 पोलिंग स्टेशनों पर बीजेपी के रुस्तम सिंह केवल 9500 वोट हांसिल कर सके थे।यह एंटी गुर्जर वोटिंग विहेवियर को समझने के लिए बड़ा आधार है।
2008 में जब रुस्तम सिंह परशराम मुदगल से हारे थे तब भी मुरैना,बामौर,रिठौरा के इलाकों में यही नतीजे आये थे।
जाहिर है गुर्जर फैक्टर दोनों दलों के लिए एक सिरदर्द भी है और विनिंग इक्वेशन भी।


सुमावली  उपचुनाव


चंबल की कुछ सीटों का चुनावी चरित्र अभी भी जातियों के प्रभुत्व से आगे नही बढ़ पा रहा है।मसलन भिंड जिले की अधिकांश सीट्स ब्राह्मण बनाम ठाकुरों के मध्य ही तय होती है इसी तरह मुरैना जिले की सुमावली सीट गुर्जर बनाम ठाकुर के चुनावी वर्चस्व की कहानी कहती है।मुरैना शहर से सटी हुई इस सीट पर पिछले तीस बर्षों से दो परिवारों का ही कब्जा चला आ रहा है। एक है गजराज सिंह सिकरवार और दूसरे एदल सिंह कंषाना(गुर्जर)।
गजराज सिंह सिकरवार एक दौर के दिग्गज छात्र नेताओं में शुमार रहे है।1990 में वे इस सीट से जनता दल के टिकट पर जीते थे।1993 में बसपा के टिकट पर खड़े एदल सिंह ने दादा गजराज सिंह को 8754 मतों से शिकस्त दी।तभी से दोनों परिवारों के बीच वर्चस्व के मैदान में बदल गई यह विधानसभा।1998 में एदल सिंह फिर से बसपा के टिकट पर जीते इस बार समाजवादी कुर्ता उतारकर बीजेपी से लड़े दादा गजराज सिंह ने टक्कर तो तगड़ी दी लेकिन 4913 वोट से पीछे रह गए।यह बसपा के इस अंचल में उभार का चरम दौर भी था।दिग्विजयसिंह अपने दलित एजेंडे को आगे रखकर बसपा की जड़ों में मट्ठा डालने में लगे थे।बसपा के 5 विधायकों को उन्होंने अपनी पार्टी में शामिल कराया जिनमें सुमावली के एदल सिंह कंषाना भी एक थे।2003 तक आते आते दिग्विजयसिंह का तिलिस्म टूट चुका था और जिस बसपा को छोड़कर कंषाना कांग्रेस में शामिल हुए थे वह उनके लिए चुनावी लिहाज से आत्मघाती साबित हुआ।2003 में गजराज सिंह ने 12395 मतों के भारी अंतर से कंषाना को शिकस्त देकर दोनों चुनावों की हार का बदला ले लिया।2008 में एदल सिंह फिर वापसी में सफल हुए।2013 में गजराज सिंह ने अपने पुत्र नीटू सिकरवार को टिकट दिलाई और वे 61557 वोट लेकर जीते वहीं एदल सिंह 41189 वोट लेकर तीसरे नम्बर पर खिसक गए दूसरे नम्बर पर रहे बसपा के अजब सिंह कुशवाहा जिन्होने 47481 वोट हांसिल किये।2018 में गजराज सिंह के दूसरे बेटे सतीश सिकरवार को बीजेपी ने ग्वालियर पूर्व सीट से टिकट दी इसलिए सुमावली से एदल सिंह की राह आसान हो गई बीजेपी ने यहां से बसपा के टिकट पर दो बार से कड़ी चुनौती दे रहे अजब सिंह कुशवाहा को उतारा लेकिन वह कोई खास चुनौती नही दे पाए।2018 में सिकरवार परिवार को बीजेपी ने भले यहां मौका नही दिया लेकिन इसी परिवार का दूसरा सदस्य मानवेन्द्र गांधी (सिकरवार)बसपा के टिकट पर यहां से मैदान में था।मानवेन्द्र गजराज सिंह के भाई के बेटे है लेकिन वह भी कोई टक्कर नही दे सके।एदल सिंह 65455 वोट लेकर जीते वहीं बीजेपी के अजब सिंह कुशवाह 52142 
और बसपा के मानवेन्द्र 31331वोट पर सिमट गए।खासबात यह है कि जिन अजब सिंह ने 2013 बसपा के टिकट पर 47481 वोट लेकर सिटिंग एमएलए एदल सिंह को तीसरे नम्बर पर धकेला था वह बीजेपी के टिकट पर 2018 में पांच हजार वोट भी नही बढा पाए।
सुमावली के चुनावी इतिहास स्पष्ट रूप से दो सिकरवार और गुर्जर परिवार के बीच विभक्त है।यहां गुर्जर,कुशवाहा,ठाकुर,किरार(मुख्यमंत्री की जाति),जाटव, ब्राह्मण,के अलावा ओबीसी और दलित वर्ग की लगभग सभी जातियों के वोटर मौजूद है।गुर्जर और सिकरवार ठाकुरों के एक लगायत गांव है जिन्हें चंबल में गुर्जर घार और सिकरवारी इलाके के रूप में जाना जाता है।
अब बात आने वाले उपचुनाव की करें। एदल सिंह को  बीजेपी का झंडा डन्डा  पकड़े देखकर लोग हैरान भी होंगे।लेकिन जो जमीनी हकीकत है वह फौरी तौर पर एदल सिंह कंषाना के फेवर में प्रतीत होती है।कांग्रेस के पास यहां कोई जमीनी उम्मीदवार है ही नही क्योंकि एदल सिंह ने यहां किसी को पनपने ही नही दिया है।कांग्रेस के पास बसपा से लड़े मानवेन्द्र सिकरवार, उनके पिता व्रन्दावन सिकरवार को उतारने के विकल्प है।एक चर्चा भोपाल डीआईजी रहे रमन सिंह सिकरवार को भी उतारने की है जो मूलतः इसी जिले के रहने वाले है। दो बार बसपा और बीजेपी के टिकट पर पिछला चुनाव लड़े अजब सिंह कुशवाहा को लेकर भी कांग्रेस में विचार चल रहा है।वहीं सिकरवार परिवार के अलावा बीजेपी ने भी यहां 30 साल से किसी को आगे नही किया है इसलिए एदल सिंह की कमलदल से उम्मीदवारी का अन्य सीटों की तरह क्लेश सुमावली में  नही होगा।दो बड़े वोटबैंक एदल सिंह के पक्ष में होंगे पहला गुर्जर जो सर्वाधिक है दुसरा किरार।किरारों के करीब 15 हजार वोट है, जो शिवराज सिंह के चलते बीजेपी के उम्मीदवारों को मिलते रहे है लेकिन अब यहां किरार,गुर्जर का पहली बार गठजोड़ होगा।ओबीसी का दूसरा बड़ा वोटबैंक यहां कुशवाहा जाति का है।यह सबसे घनघोर लामबंदी वाला जाति समूह है जिस भी दल से इस जाति का प्रत्याशी आता है यह  जातिसमाज उसी की तरफ़ झुक जाता है।अगर कोई जातीय उम्मीदवार नहींहै तो परम्परागत रूप से कुशवाहा बीजेपी को सपोर्ट करते है।लेकिन यहां गुर्जर औऱ कुशवाहा का सुमेल आसान नही है क्योंकि 30 साल से ये दोनों जातियां भी चुनावी लड़ाई लड़ती आ रही है।गुर्जर यहां दबंग बिरादरी है और उसकी दहशत ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी कायम है जाहिर है बीजेपी को अपने गुर्जर प्रत्याशी के लिए कुशवाहा वोट दिलाना कतई आसान भी नही होगा।
इन सब चुनावी कारकों के बाबजूद एदल सिंह सुमावली में मजबूत है तो खुद के प्रभाव और अपनी जाति में निर्विवाद स्वीकार्यता के कारण ही।सिंधिया और बीजेपी दो बड़े विरोधियों का साथ भी उन्हें मिलने जा रहा है ऐसे में सुमावली में संकट कांग्रेस के सामने है फिलहाल बीजेपी तो यहां मजबूत स्थिति में है।केवल मैदानी स्तर पर कार्यकर्ताओं के सुमेलन पर काम करने की चुनौती बीजेपी के सामने बड़ी है।
अलर्ट:अगर कांग्रेस ने बीजेपी के पिछले प्रत्याशी अजब सिंह कुशवाहा को अपना उम्मीदवार बनाया तो मामला बेहद नजदीकी हो जाएगा।इस स्थिति में कुशवाहा, जाटव,ठाकुर,का समीकरण बीजेपी को परेशानी खड़ा कर देगा।यह भी ध्यान देना होगा कि 30 साल की एदल बादशाहत को मिटाने के लिए यहां ब्राह्मण,ठाकुर,जैसी जातियो के बहुत लोग मैदान पर सक्रिय है।बसपा उपचुनाव नही लड़ती है इसलिए कांटे का पूर्वानुमान कठिन भी नही।

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