पत्रकार होना बहुत आसान लेकिन बापना जैसा परोपकारी होना मुश्किल

 

कीर्ति राणा

पत्रकार तो बहुत हैं और होते भी रहेंगे लेकिन महेंद्र बापना जैसा परोपकारी पत्रकार फिलहाल तो नजर नहीं आता। वो इतने सस्ते में चला जाएगा विश्वास नहीं होता।एक्सीडेंट भी होते रहते हैं महीनों बेड पर रहता या वह अपंग भी हो जाता तो परिजन इस सारी स्थिति से समझौता कर लेते लेकिन वह स्तब्ध कर के हमेशा के लिए चला ही जाएगा, यह उम्मीद नहीं थी।उससे जुड़े लोगों के पास उसके किस्सों की कमी नहीं है, इसीलिए हर व्यक्ति के लिए वह बापू था।
सारे शहर की जो चिंता करता था, 85 पार्षद, 8 विधायक, एक सांसद के मुकाबले जिसकी आवाज में दम था, सुख-दुख में जो इन सबसे पहले पहुँचता था, सुंदर कांड हो, भजन हो या भंडारा, शवयात्रा, उठावने से लेकर शादी हो, शोक बैठक हो उसकी मौजूदगी, उस परिवार से जीवंत संपर्क का सबूत रहती थी। बहती हवा सा था वो, उसकी मौजूदगी ही माहौल में जीवतंता पैदा कर देती थी।इंदौर में सालों पहले यदि रामचंद्र नीमा, गोपीकृष्ण गुप्ता का नाम था तो इंदौर की पत्रकारिता में वह बीसवीं सदी के तीन दशक का दमकता सूर्य ही था जो समय से पहले अस्त हो गया।रिपोर्टिंग का तो कीड़ा था, घटना को लेकर उसके पूवार्नुमान बेहद सटीक बैठते थे। चुनाव चाहे यशवंत क्लब का हो या गुजराती कॉलेज का या नगर निगम, विधानसभा-लोकसभा का ही क्यों न हो, बापू के पास सबकी जन्म कुंडली, अच्छे बुरे कामों के रिकार्ड के साथ आने वाले परिणाम की तथ्यपरक जानकारी भी रहती थी। कैलाश जी जब तीन नंबर से आकाश की पचास हजार से जीत का दावा कर रहे थे तब वह स्टेडियम में कह रहा था पांच से सात हजार के बीच जीत होगी। कहने में मुँहफट इसलिए भी था कि किसी से ओब्लाइज होने की चाहत रखी ही नहीं। उल्टे कई मौकों पर जाने किस किस तरह से लोगों को ओब्लाइज करना और भूल जाना आदत सी हो गई थी। दोस्तों के लिए अड़ जाना, उसके विरोधियों से भिड़ जाना और मरने-मारने की ठान चुके उन विरोधियों को अपने मन मुताबिक राजी कर लेने में गजब का कलाकार था। किसी ने बापू कह कर आवाज लगाई कि उसे और प्यारे, क्या हीरो के साथ नाम से पुकारना, गजब की याददाश्त थी। बड़े भाइयों के बच्चों की शादी हो या बहन के बच्चों की सब निश्चिंत रहते थे महेंद्र सब संभाल लेगा। दोस्तों का भी तो ऐसा ही भरोसा था उस पर, असंख्य मित्रों के लिए तो वह समुद्र में राह तलाशते जहाज के लिए लाईट हाउस समान था।शाम के अखबारों के रिपोर्टरों में देर रात तक सक्रिय रहने की आदत बापू के कारण ही पड़ी, एक वक्त वह भी था जब उसके इशारे पर शाम के रिपोर्टर-फोटोग्राफर के वोट प्रेस क्लब चुनाव में प्रत्याशी की जीत में निर्णायक हुआ करते थे। 
सबकी खबर रखने और अच्छे-अच्छों की खबर लेने वाला इतने सस्ते में निपट गया, विश्वास ही नहीं होता। एक इंदर पांचाल और दूसरा महेंद्र ये दो दोस्त ऐसे थे कि हर परेशानी में हिम्मत बँधाते थे, मेरी तरह ना जाने कितने लोग आश्वस्त रहते थे। महेंद्र क्या गया जैसे चट्टान सा सहारा ढह गया। मौत को जब आना होता है तो वह कोई बहाना लेकर आ जाती है, उसका हम सब के बीच से जाना ऐसा ही तो है। शायद मौत का वह दिन पहले से मुकर्रर था, ये तो हम सब हैं जो गमजदा हैं। ऐसे ही जब अचानक खबर मिली थी कि बीमार पिता की सेवा में लगा मित्र-पत्रकार अनुराग पुरोहित यकायक बीमार हुआ और बेहतर उपचार के बावजूद अचानक चल बसा तो उसकी मौत ने डराया था और अब महेंद्र ! उसकी पार्थिव देह झकझोर रही थी, उसकी मौत की दहशत ऐसी कि अब वाहनों की रेलमपेल भयभीत करने लगी है। 
फोन पर जब सूचना मिली कि बापू का एक्सीडेंट हो गया है, लगा था मामूली होगा, ज्यादा से ज्यादा फ्रेक्चर हुआ होगा। वो जो छठी इंद्री कुछ और ही संकेत दे रही थी उससे ध्यान हटाने के लिए महामृत्युंजय मंत्र बुदबुदाते, गली-कूंचों से गाड़ी भगाते हुए एमवायएच पहुंचना चाहता था। रह रह कर आने वाले फोन, सही जानकारी होते हुए झूठा ठहराने का दुस्साहस करते हुए जैसे तैसे अस्पताल पहुंचा। जाने पहचाने मित्रों के चेहरों की हताशा, आँखों में तैरते आँसू हकीकत बयां कर रहे थे लेकिन कान थे कि सुनना चाहते थे हालत ठीक है...!
जो नहीं सुनना चाहता था, वही शब्द जब कानों में गए तो आवाज भी आँसू बन गई।आज तक विश्वास नहीं होता कि एक्सीडेंट में जान ही चली जाएगी। जमाने भर के सुख दुख में सबसे पहले शामिल होने वाला जमाने से रुखसत होने में भी इतनी जल्दी करेगा! हर साल अंबाजी की यात्रा, नाकोड़ा भैरव की भक्ति, तीर्थ दर्शन को समर्पित महेंद्र के श्रद्धा भाव में कहीं कमी रह गई या उसका भक्तिभाव देवताओं को अधिक रास आ गया। वो तो महाकाल का भी भक्त था। क्या अब भी भरोसा करना पड़ेगा- काल उसका क्या बिगाड़े जो भक्त हो महाकाल का...!
 शव वाहन से चादर में लिपटी उसकी देह मेरे कंधे पर जरूर थी लेकिन मेरा तो हाथ ही टूट चुका था। जैसे मैं अपनी ही लाश ढो रहा था, मन खुद को धिक्कार रहा था कि संगीता से झूठ बोला, महिमा-अर्णिमा को बेवजह समझाता रहा कि पापा को यहां से बॉंबे हॉस्पिटल शिफ्ट कर रहे हैं।बेवक्त किसी की मौत एक तरह से पूरे परिवार को कैसे मार डालती है, एक बार फिर अहसास हुआ परिवार के रोते-बिलखते चेहरों को देख कर। पांच भाइयों के परिवार में महेंद्र था तो छोटा लेकिन सब को साथ लेकर चलना, जैसे अनेक कारण थे कि बड़े भाई उसके सामने छोटे बनकर गर्व महसूस करते थे।शहर का शायद ही कोई ऐसा चौराहा हो जहां उसकी बैठक, कट चाय, दोस्तों से चर्चा न रहती हो। मेरे लिए भी वह बापू हो गया था, बापू को अपनी परेशानी बताओ और भूल जाओ, फिर समस्या हल करना उसका काम। आधी चाय की पत्रकारिता में किसका कितने का फायदा हुआ यह हिसाब रखने की आदत कहाँ थी उसकी। ऐसे अनेक कारण ही रहे कि अस्पताल से घर, श्मशान से लेकर उठावने तक सैकड़ों दोस्तों का ताँता लगा रहा।
याद आते हैं 1983 के वो दिन जब महेंद्र सांध्य दैनिक अपनी दुनिया का ताजा-ताजा रिपोर्टर बना था। नेकर पहन कर ही रिपोर्टिंग करता था। इसी पहनावे में एक दिन प्रेस क्लब पहुँच गया। मामा (बालाराव) इंगले ने फटकारा, अंदर ही नहीं घुसने दिया। बाद में ओमी खंडेलवाल ने दो पेंट दिलवाई, मामा इंगले को समझाया तब कहीं प्रेस क्लब में एंट्री हुई। बहुत बाद में सदस्य बन पाया, प्रेस क्लब चुनाव भी लड़ा, कार्यकारिणी सदस्य, उपाध्यक्ष भी रहा। फिर जब एक चुनाव में गंदी राजनीति-पर्चेबाजी का शिकार हुआ तो चुनाव से ऐसी तौबा कर ली कि उस तरफ झाँकना भी छोड़ दिया। प्रेस क्लब ने जब  तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर के हाथों लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड देने का फैसला किया तो संगीता के साथ मंच पर जाना है मैंने इस बात के लिए बड़ी मुश्किल उसे राजी किया था। 
मेरी शादी में ज्यादातर काम उसी को सौंप रखे थे। याद आती है उसकी शादी, बारात निकल रही थी,वह कान से फोन लगाए खबरों की डिटेल लेने में व्यस्त था। वह निश्चिंत था तो इसलिए कि मित्रमंडली की सारी व्यवस्थाएँ मेरे जिम्मे कर रखी थी। उज्जैन की ग्रांड होटल में जनवासा था, फेरे की व्यवस्थाएँ बाकी भाई देख रहे थे और होटल के विभिन्न कमरों में ताश पत्ते खेलते हुए रतजगा कर रही मित्रमंडली अनियंत्रित न हो जाए ये मेरे जिम्मे कर रखा था।
उस जमाने में क्राइम रिपोर्टिंग में उसकी जितनी पकड़ थी वैसी अन्य रिपोर्टरों की नहीं थी।मेरे ही कहने पर वह दैनिक भास्कर से जुड़ा लेकिन मात्र तीन दिन रहा। उस वक्त के सिटी चीफ के डबल गेम का शिकार हो गया। उन्होंने कहानी रच डाली कि पंढरीनाथ के एक चप्पल दुकानदार को अखबार के नाम पर चमका कर मुफ्त में चप्पल मांग रहा था। डबल गेम ऐसा कि बदनामी तो हो ही जाए और हम दोनों की दोस्ती में दरार भी पड़ जाए। अग्निबाण से जुड़ा तो उसका ब्रांड एंबेसेडर ही हो गया।लगातार बीस साल तो बिना एक छुट्टी लिए काम करता रहा। सांध्य दैनिक का ऐसा रिपोर्टर जो दैनिक अखबार की तरह रात तीन बजे तक भी सक्रिय रहता था। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद इंदौर में भड़की हिंसा, मार्शल्ला के बीच हम कैसे स्पॉट पर पहुँच जाते थे सोचकर आज ताज्जुब होता है। हम (चंदा बारगल, मैं, रणवीर होरा और बापना) साईकिल से वसंत पोत्दार की एक्सक्लूसिव खबरों का रॉ-मटेरियल जुटाने के लिए सेंव परमल खाते हुए भटकते रहते थे। रात में जब कोई केंद्रीय मंत्री का कार्यक्रम होता या शाम को कोई वीआईपी एयरपोर्ट पर प्रेस से बात करता तो उसे मुझ से बड़ी दिक्कत होती थी कि अब तो आप खबर में बॉक्स तक नहीं छोड़ोगे। हम एयरपोर्ट से निकलते कहीं रुकते, चाय पीते। खबर पर चर्चा होती तय होता कि ये पॉइंट आप मेरे लिए छोड़ दो । कई बार जब देर रात बंबई बाजार या झंडा चौक पर सांप्रदायिक तनाव की जानकारी मिलती तो वह स्पॉट से ही मुझे जानकारी उपलब्ध करा देता था। याद आता है जब राष्ट्रपति (संभवत:) वैंकटरमण इंदौर आए थे रवींद्रनाट्यगृह में संबोधन चल रहा था। पूर्व निर्धारित भाषण से हटकर वो मप्र में डायन प्रथा जैसी कुरीति पर कुछ बोल गए। राष्ट्रपति का यह बोलना ब्रेकिंग न्यूज ही था। वह अखबार की टाईम लाईन के कारण पहले ही जा चुका था, भरोसा भी था कि कुछ होगा तो कीर्ति भाई बता ही देंगे। अप्सरा से उसे फोन किया कि बड़ी खबर है लिखित भाषण से हटकर ये सब बोला है राष्ट्रपति ने।शाम के अखबारों में एकमात्र अग्निबाण में ही वो हेडलाइन थी। जबकि जनसंपर्क विभाग के अधिकारी-मित्र मुझ से अनुरोध कर रहे थे कि मत नोट कराओ, कंट्रोवर्सी बढ़ जाएगी। अग्निबाण में कितने रिपोर्टर-वरिष्ठ पत्रकार आए और चले गए, एकमात्र बापना ही था जो तीन दशक से अधिक समय (मृत्युपर्यंत) जुड़ा रहा। एक्सीडेंट का शिकार हुआ तब घर से निकला था स्व लक्ष्मण सिंह गौड़ की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम को कवर करने। अग्निबाण में उसका इतने लंबे समय जुड़े रहना एक तरह का कमिटमेंट भी था वरना राजेश भाई के गर्म मिजाज को कौन नहीं जानता। संवेदनशील भी बहुत था, कई बार फोन आता कहाँ हो, मैं कहता फिर कोई लफड़ा हुआ क्या, घर पर हूँ आ जा। तमतमाता चेहरा लिए आता बस अब नहीं करुंगा, मैं कहता चल पहले खाना खा, बाद में बात करते हैं। माँ खाना लेकर आती, उसका गुस्सा मेरी समझाइश से ठंडा पड़ता जाता, वहीं बाहर फर्शी वाली बैंच पर कुछ देर झपकी लेता और उठता तो अगले दिन से अग्निबाण के लिए और अधिक ऊर्जा से काम करता नजर आता। ऐसा कई बार हुआ, मैं हर बार समझाता पानी नाक तक आए तो सिर और ऊपर कर लो, फिर तो वो खुद सीख चुका था हर स्थिति का सामना करना।कई खबरों में उसने सुबह के अखबारों को भी धोया, उस वक्त हम लोगों के लिए उसकी खबरें गैस पेपर का काम करती थी, वो जो खबर करता, फालोअप में खबरों के ताजा तथ्य बताने में भी संकोच नहीं करता।मुझे अपनी सोशल कनेक्टिविटी पर बड़ा गुरूर था लेकिन उसके संपर्कों का फैलता दायरा देखकर मुझे खुशी अधिक होती थी। माता-पिता की स्मृति में हर साल की जाने वाली भजन संध्या को अग्निबाण के आयोजन के मुकाबले शक्ति प्रदर्शन बताने, कैलाशजी-रमेशजी से घनिष्ठता का बेजा फायदा उठाने जैसा प्रचार हमपेशा मित्रों ने करना शुरू कर दिया तो एक दोपहर वह घर आया, परेशानी बताई और भजन संध्या नहीं करने का फैसला सुनाया लेकिन समस्या यह थी कि बिना किसी वाजिब कारण बताए कैसे बंद करें। उस साल शहर में स्वाइन फ्लू फैला हुआ था, बस तय कर लिया कि बीमारी के खतरे के चलते भजन संध्या स्थगित कर रहे हैं।भजन संध्या बंद कर दी लेकिन उसके सोशल कांटेक्ट कहाँ बंद हुए, वो तो विस्तार पाते गए। बीमार हुआ हार्ट प्राब्लम के बाद स्टेंट सर्जरी ने खुद की हेल्थ को लेकर तो चिंता पैदा की ही, रतजगा करने वाले मित्रों की हेल्थ की चिंता भी सताने लगी, सभी को हिदायत दे डाली कि शिकवे-शिकायत करना ही है तो सप्ताह का कोई एक दिन तय कर लो। वैसे भी पत्रकारिता-खासकर सिटी रिपोर्टर-में आदमी अपने लिए कम समाज के लिए अधिक जीता है। घर में बच्चा बीमार पड़ा हो उसे अस्पताल ले जाने का वक्त भले ही न हो लेकिन गोलीकांड के शिकार मरीज की उसे पुलिस से अधिक चिंता रहती है। महेंद्र तो था ही औरों के लिए जो सुबह से निकलता तो दोपहर में लौटता एक आध घंटे रहा फिर शाम से रात तक व्यस्त। या तो खबर या खबर से जुड़े लोग या लोगों से जुड़ा वह। ज्यादातर लोगों, दोस्तों के लिए तो वह सौ समस्याओं वाले ताले की एक चाबी समान ही था। 
उसके उठावने की तैयारी करते वक्त याद आ रहे थे और मित्रों के उठावने, जहां शामिल होने के बाद सारे पत्रकार मित्र कट चाय पी कर उठावने का उतारा किया करते थे।उस दिन वह कंडों की चिता पर था और आज उसका खिलखिलाता विशाल फोटो भारी भरकम फूल माला के बीच था।गहरे जख्मों को वक्त का मरहम कितनी जल्दी भरने लगता है। कहाँ तो दो दिन पहले मैं उससे कह रहा था अब मकान में शिफ्ट हो गए ना, अब महिमा के लिए रिश्ता देखना शुरू करो। बस अब यही करना है। किसे पता था उन्हीं बेटियों से झूठ बोलना पड़ेगा। एमवायएच के कक्ष में अंदर डॉ पीएस ठाकुर और अन्य डॉक्टर उसके सिर के पिछले हिस्से पर पट्टियाँ लपेटते जा रहे थे और मेरी आँखों के सामने यादों की पोटली खुलती जा रही थी। जब लोग कहते कि यार रिश्ते निभाने में आप दोनों का जवाब नहीं बाकी पत्रकार कहीं दिखे ना दिखे आप दोनों तो मिलोगे ही यह तारीफ सुनकर अच्छा भी लगता था लेकिन अब अच्छा नहीं लगेगा। जो सब की खबर लिखता था, खबरों को जीता था, वह खुद चौंकाने वाली खबर बन गया ! 
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बेटियों को बाँधी जिम्मेदारी की पगड़ी 
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र बापना के उठावने पश्चात संपन्न हुए शोक निवारण-पगड़ी रस्म में दोनों बेटियों महिमा और अर्णिमा को पगड़ी बाँधी गई।जब शोक निवारण की रस्म हो रही थी पत्नी संगीता सहित परिजनों के आँसू नहीं थम रहे थे। इन्हीं दोनों बेटियों ने मुखाग्नि भी दी थी। उठावने में भी बापना परिवार ने पुष्पांजलि की अपेक्षा चित्र के सम्मुख अनाज अर्पित कराया, यह अनाज बाद में पक्षियों के उपयोग के लिए भेजा गया। बापना परिवार के इस निर्णय की समाजजनों ने सराहना की है। 

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