पराजित भाजपा राष्ट्रपति के दरबार में

 

संसदीय ज्ञान को समझने की बजाय रोने पर आमदा

खबर नेशन / लेखक रंजन श्रीवास्तव मध्यप्रदेश में हिंदुस्तान टाइम्स के कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार हैं । उक्त लेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार है ।

विधान सभा में स्पीकर और डिप्टी स्पीकर पद के चुनाव में पराजय के पश्चात् भाजपा अब राष्ट्रपति से न्याय की उम्मीद में दिल्ली में है। एक बार सदन में दोनों पदों के लिए निर्वाचित उम्मीदवार के नाम के घोषणा के पश्चात सिर्फ न्यायालय ही फैसला दे सकता है। अगर भाजपा यह सोचती है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति फ्लोर टेस्ट का आदेश देंगे तो यह संभव नहीं लगता।

वस्तुत: इस स्थिति के लिए बहुत हद तक भाजपा ही ज़िम्मेदार है। 15 साल सत्ता में रहने के पश्चात वह विपक्ष में बैठने के लिए अपने आपको मानसिक रूप से तैयार नहीं कर पा रही है। भाजपा नेताओं को 116 सीट की संख्या दिख रही है जिससे वे 7 कदम दूर हैं। यही वो परेशानी है जिसकी वजह से वो बार बार सदन में मत विभाजन की मांग करते रहे। मत विभाजन ही नहीं बल्कि सीक्रेट बैलट की मांग करते रहे जिसे पहले प्रोटेम स्पीकर दीपक सक्सेना ने स्पीकर पद के लिए और बाद में स्पीकर एनपी प्रजापति ने डिप्टी स्पीकर पद के लिए हुए चुनाव में रिजेक्ट कर दिया।

रोचक तथ्य यह है कि स्पीकर के चुनाव में जब भाजपा ने बहिष्कार और वॉकआउट किया तब डिप्टी स्पीकर को मत विभाजन में कोई दिक्कत नहीं हुई और उन्होंने मत विभाजन का आदेश दिया पर डिप्टी स्पीकर के चुनाव में जब भाजपा सदन में डटी रही तो स्पीकर महोदय ने मत विभाजन के बजाय उसे ध्वनि मत से पारित करवा दिया। मत विभाजन का आदेश देते तो लोकतंत्र मजबूत होता पर उन्होंने सोचा होगा कि लोकतंत्र मजबूत करने की जिम्मेदारी उनकी अकेली थोड़े ही है।

दोनों चुनावों में जाहिर है जहां भाजपा ने अनावश्यक रूप से 116 तक पहुंचने के लिए जल्दबाजी दिखाई वहीं कांग्रेस भी अनावश्यक रूप से भयभीत दिखी। भाजपा सीक्रेट बैलट चाहती थी और उसमें कांग्रेस को आशंका हो सकती थी कि उसके खेमे से कुछ लोग भाजपा प्रत्याशी को वोट दे सकते थे क्योंकि इन चुनावों में व्हिप लागू नहीं होता पर जब खुले रूप से मत विभाजन हो रहा हो तो भी कांग्रेस को ऐसी आशंका उसकी अति कमजोरी को दर्शाता है। अगर मंत्रिमण्डल गठन सोच समझ कर होता और उसमें भाई भतीजावाद और पठ्ठावाद हावी नहीं होता और साथ में निर्दलीयों और सपा, बसपा को जिन्होंने कांग्रेस को इस हंग असेम्बली में सपोर्ट किया पूरा सम्मान मिलता तो इस तरह की आशंका करने की जरूरत नहीं पड़ती।

भाजपा की रणनीति समझ के परे रही। संख्याबल स्पष्ट था। कांग्रेस को सारे निर्दलीय तथा सपा और बसपा विधायकों ने सपोर्ट किया था सरकार बनाने में।  भाजपा को बहुमत के लिए एक दो नहीं बल्कि सातों सपोर्टिंग एमएलए की जरुरत है जो कि वर्तमान परिस्थितियों में संभव नहीं दिखता। हो सकता है कि भाजपा का गणित कांग्रेस के कुछ एमएलए पर भी टिका हो पर उससे हासिल क्या होगा? अगर भाजपा सरकार बना भी क ले तो क्या भाजपा कि सरकार स्थिर होगी? उसे भी उन्हीं परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा जिन परिस्थितियों का सामना अभी कांग्रेस कर रही है। वैसे भी जब भाजपा ने विधान सभा चुनाव में अपनी पराजय स्वीकार कर ली और अंतिम चुनाव परिणाम आने के कई घंटे पहले स्वयं प्रधानमंत्री ने पराजय स्वीकार कर कांग्रेस को बधाई दे दी तब क्या यह अच्छा नहीं रहता कि भाजपा ग्रेसफुल तरीके से विपक्ष में अपनी भूमिका निभाती। डिप्टी स्पीकर का पद उसे मिलता और आने वाले समय में अपनी कमियों का आत्मनिरीक्षण करके पुनः मजबूत बनती और अपनी सरकार बनाती 2023 चुनाव में या कांग्रेस सरकार के किन्हीं अंतःकलह के कारण चुनाव के पहले ही गिरने पर।

भाजपा को आत्मनिरीक्षण इस बात का नहीं करना चाहिए कि वह बहुमत से सिर्फ सात कदम दूर क्यों है। उसे आत्मनिरीक्षण इस बात का करना चाहिए कि वह पिछले चुनाव की तुलना में 56 सीट कम क्यों ला पाई। 165 सीट 170 या 166 क्यों नहीं हुआ। जनता का उससे मोहभंग क्यों हुआ। कार्यकर्ताओं का नेताओं से मोहभंग क्यों हुआ? जो एक करोड़ कार्यकर्ता बनाए गए थे वे कहां गायब हो गए। सरकारी योजनाओं के जिन 3.5 करोड़ लाभार्थियों पर पार्टी का भरोसा था वह वोट में क्यों नहीं बदला?  2013 के चुनाव में लगभग 45% वोट घटकर 41% पर क्यों अा गया? और पूरे चुनाव में पार्टी के नेताओं का परफॉरमेंस क्या रहा?

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