प्रज्ञा ठाकुर से बेहतर रही शबनम मौसी

 

न दिग्विजय सिंह "द्रोणाचार्य " और ना प्रज्ञा " शिखंडी " तो फिर राजनैतिक बिसात की महाभारत में "मोदी-शाह"  का भोपाल की जनता से छल क्यूं ?

 कहीं सुषमा स्वराज की श्रृद्धांजलि सभा में अनदेखा किए जाने से नाराज़ तो नहीं

खबर नेशन / Khabar Nation

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की लोकसभा सदस्य प्रज्ञा ठाकुर से बेहतर तो सोहागपुर की पूर्व विधायक शबनम मौसी रही । आप सब सोच रहे होंगे कि ये तुलना क्यों ?
भोपाल से लोकसभा चुनाव 2019 का भाजपा प्रत्याशी घोषित होने के बाद प्रज्ञा ठाकुर उटपटांग बयानों से विवादों में आ गई । प्रज्ञा के बयानों से पार्टी ने तो दूरी बनाई ही भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपना रुख कड़ा करने पर मजबूर भी होना पड़ा । प्रज्ञा ठाकुर का हालिया बयानपूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर और केंद्रीय मंत्री रह चुके स्वर्गीय अरुण जेटली को श्रद्धांजलि देने के लिए बुलाई गई इस सभा में प्रज्ञा का नाम जब पहली बार पुकारा गया तब वहां मौजूद नहीं थी । देर से पहुंची प्रज्ञा को भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव जैसे वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय के बाद एक बार फिर बोलने का मौका दिया गया । जिनकी एक विवादित बात ने वहां मौजूद नीति निर्धारकों को सकते में डाल दिया जो बगले झांकने को मजबूर हुए । साध्वी ने भाजपा नेताओं की असमय एक के बाद एक मृत्यु पर चिंता जताते हुए इसके पीछे कारण मारक शक्ति का उपयोग कांग्रेस द्वारा करना बताया । इसके पूर्व भी साध्वी का शहीद करकरे को श्राप वाला बयान हो या फिर महात्मा गांधी और नाथूराम गोडसे पर प्रज्ञा का नजरिया भाजपा हर बार उलझती नजर आई । यही नही माफी मांगने के बाद भी प्रज्ञा ने मोदी के मिशन स्वच्छता पर सवाल खड़े कर दिए । जिसके बाद प्रदेश भाजपा के नेताओं और पर्दे के पीछे संघ से लेकर दिल्ली भाजपा कार्यालय में बुलाकर कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा और संगठन महामंत्री का मशवरा कहे या नसीहत और चेतावनी दी गई।  बावजूद इसके प्रज्ञा को जब भी मौका मिला या फिर मंच मिला उन्होंने अपनी प्रभावी मौजूदगी दर्ज करा कर संदेश यही दिया कि साध्वी से समझौते की उम्मीद करना बेमानी है।  साध्वी का यह कहना कि वक्त बुरा चल रहा है  समझ से परे  है । क्योंकि इससे अच्छा वक्त भाजपा का पहले कभी नहीं आया । जो उनके मन में दिल में वह जुबान पर आएगा इससे साध्वी की सियासत और ना ही सेहत पर कोई फर्क पड़ने वाला है पर वह भाजपा की सेहत पर जरुर असर डालता है ।

प्रज्ञा ठाकुर के जिस नए मारक शक्ति के बयान ने सियासत में एक नई बहस छेड़ दी है उसे प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह का अप्रत्याशित समर्थन भी कम गौर करने लायक नहीं है यदि सुषमा स्वराज की श्रद्धांजलि सभा में प्रज्ञा को बोलने का मौका नहीं दिया गया तो क्या अरुण जेटली बाबूलाल गौर की श्रद्धांजलि सभा में जिन नेताओं की मौजूदगी में प्रज्ञा ने यह संदेश अपनी ही पार्टी नेतृत्व को भी दे दिया ऐसे में यदि प्रज्ञा की लाइन को पार्टी नेता समर्थन देने से बच रहे तो क्या राकेश सिंह की पैरवी का मतलब यह माना जाए कि अमित शाह और मोदी भी प्रज्ञा से इत्तेफाक रखते हैं और पार्टी नेतृत्व एक रणनीति के तहत प्रज्ञा का लगातार और बेहतर उपयोग करने की मंशा रखती है
हाल ही में खत्म हुए 54 दिनों के लोकसभा सत्र में साध्वी प्रज्ञा पार्टी की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर सकी है. न तो उन्होंने प्रश्नकाल में अपने क्षेत्र के प्रश्न पूछे, न ही शून्यकाल में अपने क्षेत्र की समस्याएं उठा सकीं. मध्यप्रदेश के अन्य सभी नए सांसदों के मुकाबले साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर कमजोर प्रदर्शन करने वाली सांसद बनकर उभरी हैं.
 जिसे अब सियासी गलियारों में समर्थकों और आलोचकों के बीच इसे साध्वी की बुद्धिमत्ता माने या फिर मूर्खता से भी जोड़कर देखा जाने लगा है ।
अब बात सोहागपुर से विधायक रही शबनम मौसी की । सोहागपुर से नामांकन पर्चा दाखिल करते ही शबनम मौसी राष्ट्रीय फलक पर चर्चित हो उठी । वजह थी कि भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार थर्ड जेंडर ने राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने की इच्छा जताई थी । पूरे चुनाव प्रचार के दौरान उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन चुनाव परिणाम के आते ही सोहागपुर के मतदाताओं ने एक नया इतिहास रच दिया । शबनम मौसी विधायक बन चुकी थी और वह भी निर्दलीय । उन पांच सालों में शबनम मौसी को लेकर कई विवाद पनपे पर राजनीतिक शुचिता और क्षेत्र के प्रति समर्पण और काम करने की शैली कभी विवाद का विषय नहीं बन पाई । उस वक्त राजनैतिक प्रेक्षक और विशलेषक शबनम मौसी के राजनीति में सक्रिय होने को लेकर अलग तरह की चिंताएं व्यक्त कर रहे थे लेकिन कार्यकाल पूरा होते होते यह कामना करने लगे कि शबनम मौसी दुबारा विधायक बनें । इसे भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य कहें या शबनम मौसी का वे दुबारा नहीं आ सकी। और ना ही शबनम मौसी जैसी कोई दूसरा थर्ड जेंडर भारतीय राजनीति में वह मुकाम पा सका ।
इधर 2019 के चुनाव में भाजपा की प्रत्याशी घोषित हुई प्रज्ञा ठाकुर अपने बयानों और आचरण से मीडिया की सुर्खी बनती गई । किसी भी समय अपरिपक्व नेता और अपरिपक्व आचरण ने भोपाल के मतदाताओं द्वारा उन्हें नकारे जाने की संभावना व्यक्त की गई । पर यहां भी चुनाव परिणाम ने भाजपा के आला नेताओं को सोचने पर मजबूर कर दिया । हांलांकि भाजपा के नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपने इस प्रयोग की सफलता से उत्साहित रहे लेकिन अपना सर धुनने पर मजबूर हैं । आखिर मोदी शाह अपने उद्देश्य में सफल रहे लोकसभा चुनाव को धार्मिक आधार पर बांटा तो गया ही लेकिन भारतीय राजनीति के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह को शिकस्त देने में सफल भी रहे ।
अब सिर्फ एक ही सवाल कि 
न दिग्विजय सिंह भारतीय राजनीति के "द्रोणाचार्य " है और ना प्रज्ञा " शिखंडी " तो फिर राजनैतिक बिसात की महाभारत में "मोदी-शाह" ने भोपाल की जनता से छल क्यूं किया ?

एक परिचय

शबनम बानो "मौसी" मध्य प्रदेश राज्य के शहडोल-अनुपपुर जिले के सोहागपुर निर्वाचन क्षेत्र से चुने गयी। शबनम ने दो साल प्राथमिक विद्यालय में पढ़ा, लेकिन उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान 12 भाषाओं को सीखा। विधान सभा के सदस्य के रूप में उन्होंने अपने एजेंडे में निर्वाचन क्षेत्र में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी और भूख से लड़ना शामिल किया। शबनम मौसी ने "असेंब्ली का दौरा करो" के अंतर्गत अपने पद का इस्तेमाल करके थर्ड जेंडर के प्रति भेदभाव के खिलाफ बोलने के साथ-साथ एचआईवी / एड्स के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रयास करना शुरू किया। इसी के साथ ही शबनम मौसी ने भारत में बहुत सारे थर्ड जेंडर को राजनीति में शामिल करने का प्रयास किया और भारत की 'मुख्यधारा की गतिविधियों' में भाग लेने के लिए प्रेरित किया, जिन्हें भारतीय समाज के रहने वाले नृर्तक, वेश्याओं और भिखारियों के रूप में अपनी पारंपरिक भूमिकाएं छोड़ दीं। उदाहरण के लिए जैसे वे शादियों या नवजात शिशु के जन्म के समय लोगों के घर में जाते हैं। 2003 में मध्य प्रदेश में शबनम मौसी ने "जीती जिताई राजनीति" (जे जे पी) नामक अपनी स्वयं की राजनीतिक पार्टी की स्थापना की, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'राजनीति जो पहले से ही जीती है'। पार्टी ने एक आठ पृष्ठ का चुनाव घोषणापत्र भी जारी किया, जिसमें यह दावा किया कि यह मुख्यधारा के राजनीतिक दलों से अलग क्यों है। 1998 से 2003 तक मध्य प्रदेश राज्य विधान सभा के लिए निर्वाचित सदस्य थी। ( थर्ड जेंडर को भारत में 1994 में मतदान अधिकार दिया गया था।)

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