नरेन्द्र मोदी यानी गंभीरता ओढ़े मसखरा अभिनेता - अवधेश बजाज
‘अदरक के पंजे’ बहुत मशहूर नाटक है। रंगमंच की दुनिया में हैसियत के हिसाब से ‘पॉकेट बुक संस्करण’ से लेकर ‘महाकाव्य’ वाले कद के लोग भी इस नाटक की अपार लोकप्रियता को बिना तर्क स्वीकारते हैं। किंतु किसी भी चर्चा में यह प्रतिस्थापित नहीं हो पाता कि इसे महान या सर्वश्रेष्ठ नाटक की संज्ञा दी जा सके। क्योंकि यह कृति अदरक की शक्ल में जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्तों की विदूषकनुमा प्रस्तुति तो देती है, किंतु अंत में बहुत अधिक सोचने पर मजबूर नहीं करती है। परदा गिरने के बाद आप स्वयं को ‘अंधा युग’ अथवा ‘आषाढ़ का एक दिन’ सरीखे अहसासों में लिपटा हुआ नहीं पाते। वजह, गांभीर्य का अभाव। गंभीरता से आशय अश्रुपूर्ण भावुकता से नहीं है। तात्पर्य उस संजीदगी से है, जिसकी प्रभावी उपस्थिति के चलते आज भी सुपरस्टार राजेश खन्ना की अधिकांश फिल्में ‘सदी का महानायक’ कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन की इस छवि पर भारी पड़ती हैं।
‘शोले’ उन दिनों हिंदी सिनेमा के दर्शकों की पसंद की अभिव्यक्ति का इकलौता प्रतिनिधित्व करती दिख रही थी। निर्माता रमेश सिप्पी ने हिंदुस्तान आये हॉलीवुड के एक नामचीन निर्देशक के लिए इसकी विशेष स्क्रीनिंग रखी। फिल्म शुरू होने के बमुश्किल बीस मिनट बाद ही परदेसी मेहमान के अंदर वीतराग पनप गया। वह यह कहते हुए बाहर चले गये कि इतनी हिंसा तो हॉलीवुड की फिल्मों में भी नहीं होती है। किंतु यह कहीं भी, कभी भी सुनायी नहीं पड़ा कि सेल्युलाइड का कोई वास्तविक पंडित सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, श्याम बेनेगल या मृणाल सेन की किसी फिल्म को आधे में छोडक़र चला गया हो। यह कहते हुए कि इतना प्रभावी और निर्वसन सच तो दुनिया में कहीं भी नहीं दिखाया जाता है। इसे ही वह सार्थकता कहते हैं, जिसके चलते उत्कृष्टता की तराजू में रे, घटक, बेनेगल या सेन जैसे नाम वाला पलड़ा सिप्पी के मुकाबले अधिक वजनदार दिखता है। लेकिन क्या ‘द ग्रेट इंडियन पॉलिटिकल थियेटर’ अथवा इसी स्तर के ‘पॉलिटिकल सेल्युलाइड’ की संप्रति में किसी उत्कृष्टता या गांभीर्य का वाकई कोई स्थान शेष रह गया है? क्योंकि नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने तो दिग्गज से दिग्गज निर्देशक, अभिनेता और मसखरी वाले अभिनय के महारथियों को सदियों पीछे धकेल दिया है। राजनीतिक हिंसा की वह ‘शोले’ रच दी है, जिसके पीडि़तों की संख्या गिनने का काम गणितज्ञ शकुंतला देवी भी जीवित रहते हुए नहीं कर सकती थीं। इस आंकड़े का पता लगाने में शून्य के आविष्कारक आर्यभट्ट या दशमलव के भारतीय प्रवर्तक तक पिछड़ जाते। ऐसी-ऐसी पटकथाएं, जिनके आगे स्वर्गीय देवकीनंदन खत्री भी ‘चंद्रकांता संतति’ की आड़ में मुंह छिपाकर अपने अहसासे-कमतरी में सिमटते हुए गुम हो जाते।
‘हर देशवासी के बैंक खाते में 15 लाख रुपए’ वाला सन 2014 में फेंका गया मायाजाल अंतत: मकडज़ाल साबित हुआ। इसकी चमक से प्रभावित होकर फंसे मुल्कवासी कीड़े-मकोड़ों की तरह चट किये जा रहे हैं। इस छल की पटकथा नागपुर में बैठकर लिखी गयी और इसके नीचे बतौर लेखक मोदी के दस्तखत हैं। फिर तो डेविड धवन की तर्ज पर ‘झूठा नंबर 1’ ‘धोखेबाज नंबर 1’ और ‘मक्कार नंबर 1’ जैसी वो शृंखला चली, जो अब तक धड़ाधड़ रिलीज होती जा रही है। इन्हें हम ‘उज्ज्वला योजना’ ‘जनधन जमा योजना’ आदि के नाम से जानने और भोगने को अभिशप्त हैं। हम वह मसाला फिल्म देखकर ताली पीट रहे हैं, जिसमें हर किस्म की नग्नता, ओछेपन और हिंसा को ढंकने के लिए राष्ट्रवाद को किसी आइटम गर्ल की तरह पेश किया जा रहा है। जब ताली पीटते दर्शक थकने लगे तो उनके हाथ में झाडू थमा दी गयी। देश की सफाई के नाम पर स्वांग की वह नौटंकी, जो केवल गंदे मंसूबों का प्रतिनिधित्व करती है। ‘पूरे देश को ओडीएफ कर दूंगा’ वाला छलमयी संवाद तन-मन को कै वाले गंदे भाव से भर देता है। क्योंकि इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि ऐसा करने के लिए आवश्यक पानी कहां से आएगा। इतना पानी न तो देश के जल स्रोतों में है और मोदी सहित उनकी मित्र मंडली की आंखों में तो खैर वह पहले से ही नहीं था। सच कहें तो मोदी ने इस देश के लोकतंत्र को अपने होम प्रोडक्शन में तब्दील कर लिया है। बपौती की तरह। एक के बाद एक नयी पटकथा। नया चलचित्र और ये सभी बासीपन की बदबू से लबरेज। इन दनादन निर्माण का केवल एक मकसद। वह यह कि देश एवं आवाम के हित से सीधे जुड़े सार्थक मसलों को मसाला फिल्मों वाले प्रयोग से दबाया जा सके। समस्याएं चुनौती बनकर उठने लगीं तो लागू कर दी नोटबंदी। मामला और विकराल हुआ तो लेकर चले आये ‘गाय-गाय’ का उन्मादी नारा। फिर भी मनमाफिक रंग नहीं जमा तो मॉब लिंचिंग का देशी आतंकवाद लागू कर दिया गया। सच कहें तो यह सरकार बीमारी का इलाज करने की बजाय नयी बीमारियों के जरिये पुराने मर्ज से ध्यान भटकाने के प्रयास के अलावा और कुछ नहीं कर रही है। लगा कि जन समस्याओं पर आंख मूंदने की प्रतिक्रिया विस्फोटक हो रही है तो अर्बन नक्सल की थ्योरी तैयार कर दी गयी। हुआ यह कि सरकार के खिलाफ सच कहने वाला हरेक शहरी और पढ़ा-लिखा शख्स नक्सलवाद का समर्थक करार दे दिया गया।
अब हॉरर फिल्मों का दौर है। उनका स्तर अल्फ्रेड हिचकॉक वाला नहीं है। वह रामसे ब्रदर्स की शक्लो-सूरत वाला है। मंदी का दौर इसकी एक मिसाल है। जिसे दूर करने का कोई न विजन है और न ही नीयत। यह उस भयावह फिल्मी संवाद की तरह है, जिसमें ‘अंधेरा कायम रहे’ की कल्पना की जाती है। अब सरकार के विरोध में बोलने की सजा का तयशुदा स्तर केवल गिरफ्तारी नहीं रह गया है। उसकी नीतियों का मूकदर्शक बने रहने के दण्ड की श्रेणी में उद्योगों की तालाबंदी, नौकरी से थोकबंद छटनी और बैंकों में खाताबंदी आदि को भी शामिल कर दिया गया है। जिनकी जेब में पैसा नहीं है, वे चक्रवृद्धि ब्याज की दर से और कंगाल किये जा रहे हैं। जिनके पास रकम है, उन पर बेजा सख्ती हो रही है। बैंक एक लाख से अधिक की रकम अपने पास नहीं रख सकते। उनके ग्राहकों का पाप यह कि वे ऐसी व्यवस्था में जी रहे हैं, जिसमें वैचारिक और नीतिगत कुव्यवस्था के अलावा और कुछ भी नहीं बचा है। एक निहायती चालू हिंदी चलचित्र में बेहद क्रूर खलनायक को सितार वादन का शौकीन बताया गया था। मार-काट और खून-खराबे वाले अत्याचारों से समय मिलते ही वह सितार बजाने लगता था। ऐसा ही मोदी भी कर रहे हैं। उनके इस सितार से राष्ट्रवाद नामक मिथ्या सुर निकलता है। क्योंकि वर्तमान सरकार की राष्ट्रवाद की थ्योरी का स्वरूप बेहद विभाजक है। बात शुरू की गयी थी पाकिस्तान के विरोध से, जिसे अंतत: भारतीय हिंदू बनाम इसी देश के मुस्लिम के रूप में तब्दील कर दिया गया। अखलाक हत्याकांड की निंदा करना देश का विरोध करार दिया जाता है। बिहार में भीड़ के हाथों पीट-पीटकर मार डाले गये तबरेज के लिए दु:ख का प्रकटीकरण भी देशद्रोह जैसा प्रचारित किया जा रहा है। नसीरुद्दीन शाह, जावेद अख्तर या आमिर खान यदि देश के हालात पर सच कहने की हिमाकत भी कर दें तो उन्हें उनके पूरे समुदाय के साथ कटघरे में खड़ा करने में देर नहीं की जाती है। मजे की बात यह कि इनका समर्थन यदि किसी हिंदू की ओर से हो जाए तो तत्काल उसकी पैदाइश तक पर संदेह खड़ा कर दिया जा रहा है। यही वजह है कि लोग यह सवाल उठाने से हिचकने लगे हैं कि आखिर बालाकोट हमले की जांच अब तक पूरी क्यों नहीं हो सकी है। क्यों किसी भी स्वरूप में यह आरोप साबित नहीं किया जा सका है कि इसके पीछे पाकिस्तान का हाथ था। जी हां, वही बालाकोट, जो अंतत: मोदी सरकार के लिए लगातार दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीतने का महत्वपूर्ण कारण साबित हुआ था।
तमाम षडय़ंत्रकारी प्रपंचों को संचालित करने के लिए सोशल मीडिया को अड्डा बना लिया गया है। मोदी और अमित शाह के हरावल दस्ते यहां आक्रामक रूप से सक्रिय हैं। सरकार के विरुद्ध एक शब्द उठते ही सामने वाले का शाब्दिक शील भंग करने के ऐसे-ऐसे जतन होते हैं, जिन्हें देखकर निर्लज्जता भी लज्जित हो जाए। आप एक प्रतिष्ठित महिला पत्रकार द्वारा करवा चौथ का व्रत न रखने की तुलना आईएस प्रमुख बगदादी के मारे जाने से कर रहे हैं। कांग्रेस की बहुत सम्माननीय नेत्री की तुलना अभिनेत्री हेलन के उस स्वरूप से कर रहे हैं, जिसे वैम्प कहा जाता रहा है। और यह सब केवल इसलिए ताकि सरकार को न सुहाने वाले सच का शमन किया जा सके। इस कीच युद्ध से हुआ यह है कि विरोधी भी चुप रहना बेहतर समझने लगे हैं। लेखकों और विचारकों की वह जमात खामोश हो गयी है, जो मौजूदा सरकार के भाट चारण से विरत है। साहित्य एवं चिंतन के जगत को एक घुटन भरी कुंठा में बदल दिया गया है। वहां हिटलर के गैस चैम्बरों की तरह सच का दम घोंटा जा रहा है। कमाल है। हरियाणा और महाराष्ट्र के विखंडित जनादेश के बावजूद दिल्ली में बैठे हाकिम यह समझने को तैयार ही नहीं है कि देश की जनता उनसे ऊब चुकी है। राष्ट्रवाद नामक पवित्र शै के साथ किये जा रहे व्यभिचार से वह त्रस्त हो गयी है।
चलिये मान लिया कि पाक अधिकृत कश्मीर की वापसी वाला अस्त्र अभी आपके पास है। लेकिन जरा यह तो बता दीजिए कि कश्मीर को और कितने दिन तक अनुच्छेद 370 के हटने की सजा भोगना होगी। मैं इस अनुच्छेद को हटाने के कदम का पुरजोर समर्थक हूं। इसके लिए मोदी की जितनी तारीफ की जाए, वह कम है। किंतु यह तो बताया जाए कि तीन महीने की अवधि पार करती इस कैद को सहने के लिए वहां की जनता क्यों अभिशप्त है। उस बच्चे की कल्पना कीजिए, जो नब्बे दिन के आसपास की अवधि से घर में बंद है। वह स्कूल नहीं जा सकता। खेलने बाहर नहीं निकल सकता। पूरी की पूरी आबादी ईद या दीपावली उल्लास से मनाना तो दूर, जुम्मे की नमाज के लिए भी भयमुक्त होकर कश्मीर की जामा मस्जिद में नहीं की जा सकती। तकनीक जिस समय भोजन और पानी की तरह इंसान की आवश्यकता बन चुकी है, उसी दौर में घाटी की इंटरनेट सेवाओं पर आपातकाल थोपा गया है। मोदी जी, यह मत कहिएगा कि ऐसा करना पड़ रहा है। यह वही हो रहा है जो आप करना चाहते थे। आप चाहते थे कि कश्मीर की आवाम उस समय तक अघोषित रूप से बंदी बनाकर रखी जाए, जब तक कि आजादी की खातिर वह अपने-अपने हाथ में कमल का फूल और जिस्म पर भगवा पट्टा बांधे हुए घर से बाहर आकर आपके समक्ष आत्मसमर्पण न कर दे।
कोई बच्चा भी यह नहीं मान सकता कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने के बाद के नतीजों का आपको पहले से इल्म नहीं रहा होगा। अमित शाह जैसे घुटे हुए राजनीतिज्ञ, अजीत डोभाल सरीखे अनुभवी नौकरशाह और कुटिलतापूर्ण तिकड़मों के दिग्गजों की जमात के प्रभावी प्रतिनिधि राम माधव, सभी ने विशेष दर्जा छीने जाने के पश्चातवर्ती लक्षणों से आपको अवगत कराया होगा। तो फिर ऐसा क्या आसमान गिरा जा रहा था कि पुख्ता ऐहतियाती इंतजामात के बगैर ही 370 हटा दी गयी। मोदी जी, कश्मीर को आपने 370 तो आजादी दे दी, लेकिन उसके बाशिंदों के हृदय और मस्तिष्क को उन तमाम जंजीरों से जकड़ दिया है, जिनसे उनकी मुक्ति निकट भविष्य में संभव नजर नहीं आती है। पहले से ही पाकिस्तानी आतंकवाद झेल रही वादी अब केंद्रीय आतंकवाद का दंश झेलने पर विवश है। कभी सोचिएगा उन कश्मीरी मजदूरों के बारे में, जिनके सेब की वहां से निकासी न होने के चलते वे भूखे मरने की कगार पर आ गये हैं। देश-भर में घूमकर वे गर्म कपड़े बेचने वाले, जो अब राज्य से बाहर निकलने से तौबा कर रहे हैं, उनका खयाल कीजिए। उस बच्चे की सोचिए, जिसे शिक्षा जैसे मौलिक अधिकार और बचपन की मस्ती से वंचित हो जाना पड़ा है। कल्पना कीजिए उस आम आदमी की, जो रोजमर्रा की जिंदगी में केवल यह सोच-सोचकर मरा जा रहा है कि घाटी के हालात फिर कभी सामान्य हो भी पाएंगे या नहीं। कश्मीर से 370 हटाकर आपने श्रीनगर का लाल चौक तो जीत लिया, किंतु नापाक मंसूबे तथा आधी-अधूरी तैयारियों की बदौलत इस पूरे केंद्र शासित राज्य को अनिश्चय के काल में धकेल दिया है। घाटी से आवश्यक सामान बाहर न आने की सूरत में बादाम सहित अन्य सूखे मेवों के दाम आसमान छू रहे हैं। यानी देश के बाकी हिस्सों की जनता भी आपके इस प्रयोग की सजा भुगत रही है।
वैसे आपका पिटारा है कमाल का। कभी इससे सरदार वल्लभ भाई पटेल प्रकट हो जाते हैं तो कभी इसी के भीतर से आप जवाहर लाल नेहरू को बाहर लाकर ‘पटेल बनाम नेहरू’ वाला खेल खेलने लगते हैं। मजमेबाजी में तो खैर आपकी महारत है। लेकिन यह खेल और भी मजेदार तब हो जाता है, जब आप सांप-नेवले की लड़ाई की तरह इंसान को इंसान से लड़ाने वाला खेल खेलते हैं। क्रूर गेंदबाज डेनिस लिली ने एक बार कहा था कि उन्हें अपनी गेंद से घायल बल्लेबाज का पिच पर गिरा खून देखकर संतोष मिलता है। क्या आपको भी सियासत की पिच पर अपनी उन्मादी गेंदबाजी से घायल लोगों का बहता लहू देखकर ऐसा ही लगता है! राम मंदिर आंदोलन के समय लालकृष्ण आडवाणी भोपाल आये थे। एक पत्रकार ने उनसे पूछा था कि क्या वह भारत माता का अभिषेक उसकी संतानों के रक्त से करना चाहते हैं। आज मैं यही सवाल आपसे पूछता हूं। है कोई जवाब!
अंत में एक सच्चे घटनाक्रम के साथ अपनी बात समाप्त कर रहा हूं। वह संभवत: ग्रीक पहलवान था। एक ही शर्त पर कुश्ती लड़ता था कि सामने वाले की जान ले लेगा। उसने असंख्य बार ऐसा किया। सामने वाले का वध करते समय वह अट्टहास किया करता था। एक दिन वह घने जंगल से गुजरा। वहां एक बेहद मोटे तने वाले पेड़ को लकड़हारों ने बीच से आधा काट दिया था। पेड़ का वह हिस्सा फिर न जुड़ जाए, इसलिए उन्होंने वहां लोहे की एक मोटी छड़ फंसा दी थी। उनके जाने के बाद पहलवान वहां से गुजरा। छड़ देखकर उसे अपनी ताकत दिखाने का मन हुआ। उसने उस पर लगातार हाथ से प्रहार करना शुरू किया। फिर जैसे ही एक झटके के साथ छड़ अलग हुई, पेड़ का तना तेजी से अपने मूल स्वरूप में आया और पहलवान का हाथ उसके बीच में फंस गया। हाथ छुड़ाने के उसके तमाम प्रयास नाकाम रहे। उसी रात वहां तेज बारिश शुरू हो गयी। कई दिन तक यह सिलसिला चला। पानी तथा कीचड़ के चलते जंगल में कोई नहीं आया। बारिश रुकी और जब लकड़हारे दोबारा वहां पहुंचे तो उन्होंने पेड़ से लटका पहलवान का कंकाल पाया। उसके शरीर का सारा मांस जानवर नोचकर खा चुके थे। उसे जानवरों द्वारा जिंदा खाये जाने के सबूत भी मिले। इस दर्दनाक मौत से पहले वह क्रूर पहलवान जमकर तड़पा था, क्योंकि जंगल के समीप रहने वालों ने बताया कि उन्हें उसकी मौत की संभावित तारीख के आसपास किसी के भयावह रूप से चीत्कार करने की आवाज आती थी। मोदी जी, मैं नहीं चाहता कि आपका राजनीतिक हश्र ऐसा हो, किंतु ऐसा हो जाने की आशंका से खुद को अलग भी नहीं रख पा रहा हूं। उस पहलवान जैसा उन्मादी आचरण बंद कीजिए। न खुद मगरूरियत में रहें और न ही देश की जनता को थोथे राष्ट्रवाद की अफीम चटाकर उसके दुख:दर्द से विरत करने का षडय़ंत्र आगे बढ़ाएं। याद रखिये कि जंगल चाहे राजनीति का हो या वास्तविक, आखेट प्राय: एकतरफा नहीं होता। अच्छे से अच्छे शिकारी खुद भी कभी शिकार बन जाते हैं। इसे मेरी नसीहत नहीं, बल्कि चेतावनी के रूप में लीजिएगा। चाहें तो इसे मेरी आपके सियासी परिणाम के लिए खम ठोंककर की गयी भविष्यवाणी भी मान लें। फिर चाहे आपके ‘कंसंट्रेशन कैम्प्स’ में मेरी पत्रकारिता का परिणाम कुछ भी क्यों न हो जाए। ‘अदरक के पंजे’ से देश की जनता को मुक्त कीजिए। कामकाज और व्यवहार में संजीदगी लाइए। वरना तय मानिए कि ‘सदी का महानालायक’ वाला खिताब बहुत तेजी से आपकी ओर सरकता चला आ रहा है।
- लेखक बिच्छू डॉट कॉम के संपादक हैं।